Tuesday, February 27, 2018

हे वैज्ञानिक सोचवाले इंसानों आप सभी को होली की शुभकामनायें


विज्ञान का विद्यार्थी होने के  नाते मेरा विज्ञान का पक्षधर होना स्वाभाविक होना चाहिये, एसे मे जब अंधविश्वास पर वार करते हुये लेख पढने को मिले तो मुझे अच्छा लगना चाहिये, पर मे क्या करू मुझे दूसरे अनदेखे पहलू पर नजर डालने की बुरी आदत जो है, लीक से हटकर सोचने की आदत है. इधर विज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते मेरे साथी मुझ से यह उम्मीद करते है की माफिया, पूजीपतियों  और राजनेताओं की सांठ्गांठ को नजर अंदाज करते हुये हर अच्छी बुरी वैज्ञानिक सोच का मै समर्थन करू. यह भी भुला दू की आज विज्ञान हमे किस दिशा मे ले जा रहा है.
इन दिनों मेरे आस पास विज्ञान और तकनीक के नाम पर जो हो रहा है उसे देखकर चिंतित और व्यथित हू  और अपने को असहाय महसूस कर रहा हू. गलत का विरोध भी करू तो केसे ?  विरोध करने के लिये और अपनी बात कहने के लिये उन्ही के पास जाना होगा जिनका विरोध करना है, यही मेरी मजबूरी है.  इस हद तक की निर्भरता इसी विज्ञान की ही तो देन है.
अगर आज मुझे अपनी बात आप तक पहुचानी है तो करोडो का चेनल चाहिये.... एसा एक नही सेकडो चेनल चाहिये, क्योंकी मे जिनके बारे मे कहना चाहता हू उनके पास मुझे गलत साबित करने के प्रचार साधन आपार है. इतना असाहाय तो मेरे पूर्वजों ने भी पहले कभी महसूस नही किया होगा. यह सच है की वो कम ज्ञानी थे, अंधविश्वासी भी थे. शायद हमारी तरह गलत और सही की पहचान नही कर पाते थे. उन्हे नही पता था की पृथ्वी सूर्य के चारो ओर चक्कर काटती है. पर उनकी अपनी एक जीवनशेली थी जिसे अपना कर वो हजारो सालो से पर्यावरण के साथ सामंजस्य बनाये रखते हुये इंसानी जीवन को जीवत बनाये रखा. पर आज क्या ?
आज हम हद दर्जे तक मतलबी और लालची हो गये है हमारी कथनी और करनी मे फर्क बढ गया है.  हमारी जिंदगी इतनी आराम तलब और मतलब परस्त हो गई है की हमने अपने आनेवाले  संकट से आंखे मूद ली है. इस विज्ञान ने इंसान मे मोजूद जानवर की हसरत को हजारो गुना बढा दिया है. आज हम वही बोलते और सोचते है जो हमारी हसरतो को पूरा करने मे मदद करे...किसी भी कीमत पर.
लालच को हमने कोरपोरेट का रूप दे दिया है. जो बस कमजोर को अपनी मालकियत समझता है प्राकृति संसाधनो का बेहिसाब दोहन इसी लालच की देन है. यही लालच धर्म और विज्ञान को अपने मतलब के लिये एक दूसरे को खून का प्यासा बना देता है. लाखो मार दिये जाते है और दोष धर्म का. हो सकता है,  दोष धर्म का ही हो,  पर हथियार किसके है ...वो तो विज्ञान की ही देन  है ना ?  वरना मात्र नाखून और पंजो से आप इतनो का मार पाते ?   
प्रथम विश्व युद्ध से पहले तक विज्ञान और उसके द्वारा किया गया तकनिकी विकास का असर बहुत सिमित क्षेत्र मे होता था. ये वो समय था जब सभ्यताये प्रकृति के साथ तालमेल रखते हुये अपनी परंपराओं और समाजिक संरचना को हजारों सालो तक बनाये रही, और  वंही कुछ समाज अन्य सभ्य समझे जाने वाले समाजों की तुलना मे  अपने को  आदिम, जंगली बनाये रहे.  उस समय वो एसा कर भी पाये क्योंकी विज्ञान उतना उन्नत नही था.  
सभ्यताये आती- जाती रही पर हजारों सालो से मानव जाति अपना वजूद बनाये रही, प्रथम विश्व युद्ध के  बाद यह सब तेजी से बदला गया. जिस तेजी से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हो रहा है वो अब किसी से छुपा नही है, विज्ञान और तकनीकी की मदद से इसकी अंधाधुंध उपयोग सभी सीमाये पार कर रहा है.
यह सच है की अंधविश्वास ने मानवजाति का नुकसान किया  है. पर क्या कभी इसका किसी ने हिसाब लगाया की विज्ञान और तकनीकी ने मानव जाति का कितना नुकसान किया है. इसलिये अंधविश्वास पर वार करने से पहले हमे यह देखना होगा की जिस  विज्ञान की उगंली पकडकर हम चलना चाहते है वो हमे किस दिशा मे ले जा रहा है. यह तब, और भी जरूरी हो जाता है जब व्यवस्था भ्रष्ट हो  और वो लालची मतलबी एह्सान फरामोस राजनेताओं और धर्म के ठेकेदारों और पूजीपतियो की लिये काम कर रही हो.
अंधविश्वास और गलत पंरपराये मात्र उनको  प्रभावित करते थी जो उन्हे मानते है, पर  विज्ञान उनको भी प्रभावित कर रहा है जिसका उससे दूर दूर तक कोइ लेना देना नही है. पृथ्वी का जीवन इससे पहले इतने संकट मे कभी नही था. हर गुजरते दिन के साथ कोइ ना कोइ प्रजाति विलुप्त होती जा रही है. आज हम मे से कोइ भी पक्के र्तौर पर यह नही कह सकता की अगले 50 साल मानव जाति भी बनी रहेगी या नही.
एल्बर्ट आंस्टीन को आज अगर विज्ञान के लिये याद किया जा रहा है तो उन्हे परमाणुबम के लिये और उससे हुई लाखों हत्याओं के लिये भी याद किया जाये ...  जो उनके रहते नागासाकी और हिरोशिमा मे हुई .... कितना असाहाय महसूस किया होगा एल्बर्ट आंस्टीन ने ...या किया भी होगा या नही...कोन जानता है....इतिहास तो जीतने वाले लिखते है. 
आज विश्व की 20% आबादी का पृथ्वी के 80% संसाधनों पर कब्जा है. ये बेहद ताकतवर है. यही  लोग विज्ञान और तकनीक का सहारा लेकर बाकी 80% आबादी को डर और मजबूरी के साये मे जीने को मजबूर कर दिया है. यही वो लोग है जिनका असिमित लालच जंगल , पहाड को बरबाद कर दे रहा है.  आखिर प्राक़ृतिक संसाधनों का बेहिसाब दोहन हमे किस ओर ले जा रहा है?
कल ही ल्यूसी रोबोट का विडियो देखा ...उसमे वो बोल रही है की “ अगर आप मेरे साथ सही सलूक करोगे तो मै भी आपके साथ सही सलूक करूगी” ? हो सकता है की यह किसी का मजाकिया विडियो हो? पर यह मात्र धमकी नही है. आर्टी फीशियल इंटेलीजेंस से युक्त ये रोबोट समय के साथ और बेहतर होते जायेगे और वो समय दूर नही जब हम पूरी तरह इन पर निर्भर होंगे इसके नतीजे कितने विनाशकारी हो सकते है यह तो भविष्य की बात है पर आज जो  कुछ  अफगानिस्तान, इराक मे हुआ उसे क्या आप नजर अंदाज कर पायेगे, किस तरह रिमोट मे बैठे कुछ लोग विज्ञान की देन ड्रोन और एसे ही कितने हथियारों से सब कुछ तबाह करने पर तुले हुये है ... और जो विरोध मे है वो बस आंतकवादी  करार दिये जा रहे है.  मै यह नही कह रहा हू की आप फिर से आदिम बन  जाओ और अंधविशवास का दामन थाम लो. पर इसका मतलब यह भी नही की विज्ञान और तकनीक का अंध भक्त हो जाया जाये.
हमे धर्म और विज्ञान से परे जाकर जीवन को देखना और समझना है. जीवन को सरल बनाना है. आज विश्व की आबादी 770 करोड़  से भी ज्यादा है और अगले 10 वर्षों मे वो 900 करोड़ का आकडा पर कर जायेगी. 
लालची और मतलबी लोगो से शासित 900 करोड़ लोग जो अपने ही बनाये विज्ञान और तकनीक के दानव से डरे और सहमे हुये होंगे ..... जिसे हम प्रगति कहते है क्या सच मे यह प्रगति है ...और यह केसी प्रगति, किसकी प्रगति ? इस सब से इंसानियत ने क्या पाया ?
आज विकास के नाम पर हमने लंगोठ पहने मूल निवासी को जींस पहना दी है हाथ मे मोबाइल थमा दिया है देखने को टीवी भी लगा दिया है ...क्या यह सब करके उस सीधे सादे इंसान को अपनी तरह  लालची और मतलबी नही बना दिया. अब हम चाहते है की हम उसके जंगल और पहाड ले ले और वो उफ तक ना करे
मै आदतन ट्रेकर हू ....अब  भी ट्रेकिंग के दौरान मुझे जंगल और पहाड मे एसे लोग मिल जाते है जिनके पास भले ही खाने को एक रोटी हो पर उसमे से भी  वो आधी रोटी मुझे देना चाहता है ...अपनी खटिया मुझे सोने को देता है और खुद  नीचे जमीन पर सो जाने की जिद्द करता है ...उस समय  सच मै अपनी इतनी बढी वैज्ञानिक सोच और तकनीक होने के बावजूद खुद को बहुत छोटा महसूस करता हू ...आज वो संकट मे है और मे बस वाट्सएप पर यह लिख पा रहा हू . उसका साथ दूंगा तो आप सब मुझे आंतक वादी और माओवादी घोषित करने मे कतई परहेज नही करोगे ... हो सकता कुछ लोग इस लेख को पढकर एसा सोच भी रहे हो
क्या ही अच्छा होता अगर विज्ञान इस धरती पर  रह रहे इंसानों को समझा पाता की इस पृथ्वी पर उसके जीने के लिये जरूरत से ज्यादा है. काश विज्ञान हम सब को विश्व ग्राम का अहसाहस दिला पाता. हमे समझा पाता की राष्ट्र , धर्म, रंग  और जाति मे बटा वो प्राकृति की एक मात्र एसी अनूठी रचना है जो चाहे तो जानवर से खुद इश्वर बन सकता है.
अफसोस विज्ञान एसा नही कर पाया उस पर  राष्ट्र , धर्म , रंग और जाति जेसे बांटने वाले विचार पहले भी हावी थे और अब तो हद ही हो गई है. आज वो एसे विचार पागल पन की हद तक जनूनी होकर इसी विज्ञान की मदद से फेल रहे है. कुछ लोगों ने पृथ्वी के संसाधनों पर बेशर्मी की हद तक कब्जा कर लिया है और बाकीयों को राष्ट्र , धर्म , रंग और जाति जेसे बांटने वाले विचार से आपस मे लडाकर अपना उल्लू सीधा कर रहे है. 
सब को मौत की सच्चाई मालूम है सब को मालूम है की वो कितना ही अमर होने का जतन कर ले, मौत से वो बच नही पायेगा. जो पैदा हुआ है उसे मरना ही होगा. हमारी पागल पन की हद देखो की वो हमे दिखाई नही दे रहा है. 
आज विज्ञान बंदर के हाथों उस्तरा ही तो है ...ना भई ना उस्तरा नही..क्योंकी उससे तो वो खुद अपना ही नुकसान कर सकता था. उसके हाथ मे विज्ञान एक एसे रिमोट की तरह है जो किसी भी एटम बम को फोड सकता है .... जो अब फूटा की तब.
एटम बमों का भोडा प्रदर्शन शान से हो रहा है, जितना बढा बम उतना ही वैज्ञानिक और तकनीकी उन्नत देश.  हमने इतिहास  से ना सीखने की कसम खा रखी है.  आज हमने रक्षा के नाम पर इतने हथियार जमा कर लिये है जो इस पृथ्वी को सेकडो बार तबाह कर सकती है. फिर भी चेन नही
 हमे और घातक हथियार चाहिये. और एसे लोगों को आप विज्ञान देने की बात कर रहे हो.  मेरे हिसाब से अंधविश्वास पर काम करने से पहले हमे अपने लालच और डर पर काम करना चाहिये, और इस बात का जबाब हमे अपने अंदर खोजना चाहिये की लालच ज्यादा खतरनाक है या अंधविश्वास.
कहने को अब भी बहुत कुछ है पर लेख लंबा हो रहा है ...इसे पढते रह जाओगे तो होली कब मनाओगे. .. इस लिये आगे की बात किसी ओर दिन 

शुभ होली
                                                                                                                                     सादर
       दुर्वेश