Thursday, June 9, 2016

पुनर्जन्म

एक अवधारणा है कि आदमी जब मरता है तो उसकी जीवात्मा उसमे से बाहर निकल जाती है और इस ज़िन्दगी के कर्मो के अनुसार उसको दूसरा शरीर मिलता है। अलग-अलग धर्मो और सम्प्रदायों में इस बात के लिए अलग-अलग सोच है। ज्यादतर वैज्ञानिक इसे धार्मिक अंधविश्वास मानते हैं पर  कुछ वैज्ञानिक इस पर रिसर्च कर रहे हैं।
यह अब भी कुछ हद तक रहस्य है की मृत्यु के बाद हमारी चेतना का क्या होता है.  भारत में पुनर्जन्म के बारे में बहुत प्राचीन काल से मान्यता  हैं। हिन्दूजैनबौद्ध धर्म के ग्रंथों में इस बारे मे बहुत कुछ कहा गया है।

यह माना जाता है कि जीवात्मा अमर होती है और जिस तरह इंसान अपने कपड़े बदलता है उसी तरह वह शरीर बदलती है। उसके अगले जन्म पिछले जीवन के पुण्य या पाप कि वजह से मिलता है। पश्चिमी देशों में भी कुछ जगहों पर इन धारणाओं को माना जाता है। प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरातप्लेटो और पैथागोरस भी पुनर्जन्म पर विश्वास करते थे। वैज्ञानिकों में शुरू में इस विषय पर बहुत बहस हुईकुछ ने इसके पक्ष में दलीलें दीं तो कुछ ने उन्हें झूठा साबित करने कि कोशिश कीकुछ विज्ञानिकों ने कहा यदि यह सच है तो लोग अपने पिछले जन्म की बाते याद क्यों नहीं रखतेऐसा कोई भौतिक सबूत नहीं मिलता है जिससे आत्मा का एक शरीर से दूसरे शरीर में जाते हुए साबित किया जा सके. फिर भी कुछ वैज्ञानिकों ने इस पर रिसर्च किया और कुछ मनोविज्ञानिक पुनर्जन्म को मानकरइसी आधार पर मनोविकारो और उससे संबधित शरारिक बिमारीयों का इलाज कर रहे है।

पुनर्जन्म को लेकर मेरे मन मे भी शुरू से जिज्ञासा रही की चर्वाक के उस सिद्धांत को मानू की जीवन के खत्म होते ही सब कुछ समाप्त हो जाता है. कुछ नही बचता. मिट्टी का शरीर मिट्टी मे मिल जाता है. चेतना शरीर के साथ ही समाप्त हो जाती है. या कृष्ण की बात को मानू की जीवात्मा अजर अमर है. शरीर के खत्म होने के बाद भी अगर कुछ बचा रह जाता है तो वो जीवात्मा है जो जन्म और मृत्यु के अनगिनित चक्र से गुजरती हुई अनेकानेक अनुभव प्राप्त करती है. मुझे इन दो विचारों मे से किसी एक को चुनना है. क्योंकी इसी आधार पर मुझे अपनी बाकी बची जिदंगी केसे गुजारनी है यह तय करना है. क्योंकी अगर एक ही जन्म है तो फिर काहे का समाज और देश ... लूटो खाओ और मौज करो. उसके लिये किसी को मारना पडे तो मार दो... बस कानून की नजरो से बचे रहो वरना इसी जन्म मे नर्क के दर्शन (जेल) हो जायेगे. और अगर पुनर्जन्म है तो फिर मुझे अपने हर कर्म के प्रति चेतन रहना पडेगा. मुझे अपने कर्म सोच समझकर करने होंगे.
   
आज मै अपनी खोजों और दलीलों से अपने दिमाग को समझा सकता हू की पुनर्जन्म होता है. एसी बहुत सी दलीलों मे से कुछ दलीले आप के सामने रख रहा हू जिस से आप भी मेरी तरह इस बात को समझ कर अपनी जिदंगी के बारे मे तय कर सके की आप को अपनी जिदंगी मे क्या करना है.

यह एक खुली बहस है इसलिये आप की शंकाये और तर्क मेरे सिर आंखो पर ...मुझे नही पता की आप के सभी प्रश्नों का जबाब मेरे पास है. फिर भी मुझे आप के प्रश्न जानकर खुशी होगी जिससे मे अपनी मान्यताओं का एसिड टेस्ट कर सकू. अभी तो मेरा यह पूर्ण विश्वास है की पुनर्जन्म होता हैऔर इसी विश्वास के साथ जिदंगी बसर कर रहा हू , की मुझे हर किये का नतीजाआज नही तो कल भोगना है.  
 
डार्विन की क्रमिक विकास बताता है कि मछली पानी से बाहर आईवो हवा में सांस नही ले सकी. इसलिये हवा मे सांस लेने के लिये उसने गलफडे विकसित कर लिये. जब उसे जमीन पर चलने की इच्छा हुई तो उसके फिंस पेर में बदल गये और जब उसने उडना चाहा तो फिंस पंख में बदल गये. यह बात मुझे हजम नहीं हो पा रही है कि मछली ने चाहा और उसने अपने शरीर में बदलाव कर लिया क्योंकी मेंने भी बहुत चाहा की में भी हवा में उड सकू पर ऐसा कुछ नहीं हो पाया की मेरे पंख उग आते या ऐसा ही कुछ हो जाता. मेंने जब भी पानी में डुबकी लगाइ तो मुझे सांस लेन के लिये तुरंत बाहर आना पडा. बहुत चाहने पर भी मुझे समझ नही आ पा रहा की पानी में सांस ले पाने के लिये अपने को कैसे बदलू.

जिस बदलाब की बात डार्विन ने समझाने की कोशिश की वो एक जन्म में संभव नहीं था. शायद बदलाव कि रफ्तार इतनी धीमी रही होगी की जो बदलाव जीव चाह रहा होगा वो कई जन्मों मे संभव हुआ होगा. वो चाह कर भी अंश भर इस जन्म में नहीं बदल सकते एसा कभी नही हुआ की किसी ने उडना चाहा और वो रातोंरात पंखो का मालिक बन गया. इसका मतलब यह हुआ की बदलाव उस शरीर का संभव नहीं है जो पैदा हो चुका है. और जो पैदा नही हुआ उसे केसे मालूम है की उसे क्या चाहिये और क्यों चाहियेअगर विज्ञान की मानेतो जिसे बदलाब की जरूरत थी वो तो उसी शरीर के साथ खत्म हो गया.

इसका मतलब बदलाव तभी संभव है की जब उसे पिछले जन्म मे क्या भोगा उसे क्या बदलाव चाहिये वो उसे याद रहे. तभी तो वो अपनी रचना बदल सकेगा. और जो बदलाव हो रहे है उसे हर जन्म में एक सही दिशा दे सकेगा. अगर ऐसा है तो यह तो पुंनर्जन्म से ही सभंव है...पर विज्ञान तो पुंनर्जन्म को नहीं मानता. सच तो यह है की अगर आप थ्योरी आफ इवोल्यूश्न पर विश्वास करते हो तो आप को पुनर्जन्म पर भी विश्वास करना होगा.

क्रमिक विकास सिद्धांत में एक और दलील दी जाती है कि उत्त्पत्ति  अनियमित, आकस्मिक, निरुद्देश्य, बेतरतीब, क्रम रहित, और  सहसा उत्पन्न घटनाओं का परिणाम है और प्राणी का शरीर विकास और बदलाव इन्ही घटनाओं का परिणाम है..मुझे इसमे कोई दम नजर नही आता.  इतना परिष्कृत, जटिल और विवेकी शरीर सिर्फ सहसा उत्पन्न घटनाओं का परिणाम नही हो सकता. क्या आप यह मानने को तैयार है की लोहे का ढेर, कुछ कांच और रबर के सहसा अचानक बेतरतीव मेल से कार बन सकती है. नही ना..अगर कार जेसी साधारण चीज अगर बेतरतीव मेल का परिणाम नहीं हो सकती तो फिर चारों तरफ दिखाई देते करोडो जीव कैसे अनियमित, आकस्मिक, निरुद्देश्य घटनाओ का प्ररिणाम हो सकते है.

इसके लिये यादों और अनुभव का बने रहना जरूरी होगा जो जीवन के बाद भी बना रहे. क्योंकी इवोल्यूश्न एक ही जन्म मे संभव नही होता है वो जन्मों जन्मों तक चलने वाली निरतंर प्रक्रिया है. जो survival of fittest  के साथ जुडी है. जिन्होने अपनी चेतना का विकास कर अपने शरीर मे जरूरी फेर बदल किये वही आगे जिंदा रह सके. बाकी सब इतिहास बन गये.  

इसी तरह दूसरा उदाहरण बच्चे के जन्म का है. जब तक बच्चा मां के पेट मे होता है तो उसे गर्भ नाल से सभी जरूरी पोषण मिलता रहता है गर्भ उसे पूरी तरह से सुरक्षित वातावरण देता है जिसमे वो विकास करता रहता है. जन्म के समय उसे मां का गर्भ छोडना पडता है और  उसका सामना बाहरी वातावरण से होता है. गर्भ से बाहर आने की पूरी प्रक्रिया मे वो मात्र जीवत मांस का जीता जागता पिण्ड भर होता है जिसमे कोइ हरकत नही होती.
जब उसे मां की नाल से अलग किया जाता है या उसे मां की नाल से जीवन मिलना समाप्त होता है. उसके बाद क्या होता है?  क्योंकी जिस मां के गर्भ मे वो है वंहा सांस लेने की जरूरत नही थी. असल मे उसे इसका ज्ञान भी नही होता की वो सांस भी ले सकता है. हां जरूरत पडने पर यदा कदा अपने हाथ पांव जरूर चलाता रहता है जिसे मां अकसर महसूस करती है.

गर्भ से बाहर आने के बाद भी उसे इस बात का ज्ञान नही होता है की अब उसे सांस लेना है. जन्म लेने के बाद भी वो एक तरह से मृत प्राय होता है. नर्स उसे दोनों टांगो से उल्टा कर उसके पिछाड पर चांटे मारती है. उसकी थोडी सी कोशिश के बाद वो अचानक जोर से सांस लेते हुये रोने लगता है. सब को लगता है की नर्स के चांटे मारने से एसा हुआ. अब तक मुझे भी एसा ही लगता थापर अब नही लगता क्योंकी रोबोटिक और कम्प्यूटर प्रोगार्मिंग की जानकारी के बाद मै यह दावे से कह सकता हू की रोने और सांस लेने की सरल सी प्रक्रिया उसकी स्वत: स्फूर्त प्रक्रिया नही हो सकती क्योंकी वो सब किसी प्रशिक्षित दिमाग से ही संभव है. सवाल यह है की उसे यह प्रशिक्षण कब और केसे मिला. यह सब देखने मे भले ही सरल लगता हो पर है नही.  उसे केसे मालुम की उसे केसे रोना है या केसे सांस लेना है. अगर उसे पता होता तो वो मां के गर्भ मे भी एसा ही करता और नतीजा हम सब को मालुम है उसके बाद क्या हुआ होता.

बाहर आने के बाद उसका दम घुट रहा होता है पर वो सांस नही ले सकता. उसे तो पता भी नही होता की उसका जीवन खतरे मे है. फिर अचानक जेसे उसकी चेतना का विस्फोट होता हैऔर उसे सांस लेना आ जाता है ... उसके बाद दूध पीने का लिये वो बैचेन होने लगता है. यह ज्ञान उसे अचानक कंहा से मिला ... मेरा मानना है यह संभव हुआ चेतना के पुनर्जन्म से. जेसे ही चेतना उसके शरीर को पूरी तरह अपने नियंत्रण मे ले लेती है तो उस चेतना को मालुम है की जीने के लिये सांस लेनी है और उसे चेतना को यह भी मालुम है की सांस केसे लेनी है. और वो सांस लेने लगता है... उसके साथ ही वो जोरदार  तरीक से अपने हाथ पेर पटकता है.

मेने जब एक रोबोट प्रोग्रामर से पूछा की अगर उसे नवजात बच्चे के रोने और सांस लेने की हूबहू क्रिया को रोबोट को सीखाना है तो उसे कितने instruction देने  होंगे . मुझे जानकर आश्चर्य हुआ जब उसने बताया की कम से कम उसे 2000 लाइन instruction की जरूरत होगी. मुझे विश्वास नही हुआ. तब उसने बताया की एक एक मांसपेशी जो उसके रोने और सांस लेने से जुडी हैउसे बताना होगा के उसे कब और केसे और कितना खिचांव और उसे कब और कितना ढीला छोडना है गले की मांस पेशियों को बताना होगा की उसे केसे हवा के दबाब को नियंत्रित करना है और जीभ को बताना होगा की उसे केसे हवा को काटना है की रोने की अवाज निकल सके. और उस सब का फीडबैक के लिये मुझे कोड लिखने होंगे जो यह बता सके की किस मे कितना खिचांव है और कोन कितना ढीला है. उसके लिये मुझे सही दर्द का अहसाहस भी पैदा कराना होगा.

यह बिकुल वेसा ही है जेसा आप से शास्त्रीय गान करने को कहा जाये. मुझे नही लगता की आप एसा कुछ कर पायेगे. उस बच्चे के लिये रोना किसी शास्त्रीय गान से कम कठिन नही जिसे वो कुछ सेकेंड मे सीख लेता है. क्योंकी वो उसकी चेतना मे अब मोजूद है...अब अगर उसकी चेतना मे शास्त्रीय गायन की यादे मोजूद है तो वो भी थोडी सी कोशिश के बाद कोइ भी गुरू उसे वह सब याद दिला देगा.
  
आप कह सकते है यह सब उसने मां और बाप से DNA के रूप में पहले ही उसने पा लिया होगा और समय आने पर उसने वही सब किया जो उसे करना चाहिये... अगर एसा होता तो पैदा होते ही रोना शुरू कर देता ...सांस लेना शुरू कर देते...एक अंतराल क्यों होता. एसे बहुत से बच्चे होते है जो जन्म के बाद सांस नही ले पाते और उनका शरीर नीला पडता जाता है और अगर उन्हे वेंटीलेतर नही रखा जाये तो कुछ देर बाद मृत हो जाते है. एसा सिर्फ इस लिये हुआ होगा क्योंकी किसी कारण वश किसी भी चेतना ने उसका शरीर ग्रहण नही किया.

बच्चे के जन्म की यह घटना पुनर्जन्म का एक ठोस सबूत हैएक डाक्टर और नर्स से बेहतर इस  घटना का कोइ साक्षी  नही हो सकता की उस पल मृत प्राय बच्चे मे केसे अचानक चेतना का संचार होता है. जेसे उसमे चेतना का महा विस्फोट हुआ हो... जेसे उस रोबोट शरीर के दिमाग मे पूरा प्रोग्राम डाल दिया गया हो. 

बच्चे जन्म के बाद जिस तेजी से सीखते है वो किसी को भी अचंभित कर सकता है. इस बात को किसी रोबोटिक इंजिनियर से पूछो और उसकी प्रतिक्रिया जानो. एसा वो इसलिये कर पाते है की अवचेतन मे वो सब पहले से ही मोजूद होता है.

यही वजह है की मोर्जाट चार वर्ष की अवस्था में संगीत कम्पोज कर सकता था। ‘लार्ड मेकाले’  और विचारक ‘मील’  चलना सीखने से पूर्व लिखना सीख गए थे। वैज्ञानिक ‘जान गास’ तब तीन वर्ष का था तभी अपने पिताजी की गणितीय त्रुटियों को ठीक करता था। इससे प्रकट है कि पूर्व में ऐसे बालकों को अपने क्षेत्र में विशेष महारथ हासिल थी। तभी वर्तमान जीवन में संस्कार मौजूद रहे। प्रथमतः शिशु जन्म लेते ही रोता है। स्तनपान करने पर चुप हो जाता है। कष्ट में रोना और अनुकूल स्थिति में प्रसन्नता प्रकट करता है। चौपाया स्वत: ही चलना सीख जाता है। पक्षी आसानी से उडना सीख जाते है. इस तरह की घटनाएं हमें विवश करती हैं यह सोचने के लिए कि जीव पूर्वजन्म के संस्कार लेकर आता है। वरना इन नन्हें शिशुओं को कौन सिखाता है.

एसे सेकडो उदाहरण है जिन से पता चलेगा की उनके घर खानदान मे कोइ संगीतकार नही थाडांसर नही थापेंटर नही था  और बच्चे ने विपरीत परिस्थितियों मे भी वो सब सीखने की जिद्द की और मौका मिलने पर वो उसने इस सहजता से किया जेसे उसे पहले से ही सब पता हो.

इंटरनेट  पर एसे हजारों वैज्ञानिक शोध मिल जायेगे जिस मे उन्होने पिछले जन्म की यादों का मामलों पर खोजबीन की है. उसमे से बहुत से मामले वो अब तक झुठला नही सके. अगर एक भी मामला असली मे सही है तो फिर मेरे पूर्वजन्म के कथन को बल मिलता है. यह सच है की एसी घटनाओं मे जेसे जेसे बच्चे बढे होते जाते है वो भूलते जाते है जेसे हम अपने सपनों को भूल जाते है. जैसे-जैसे वो संसार में व्यस्त होते जाते हैं वो सूक्ष्म लोकों और पृथ्वी पर अपने पिछले जन्मों को भूल जाते हैं । हमारी भौतिक इंद्रियां यानी पंचज्ञानेंद्रियांछठी ज्ञानेंद्रिय उन यादों को पूरी तरह से ढंक लेती हैं । यह हम पर ईश्वर की कृपा ही है कि उन्होंने वह व्यवस्था की है कि हम पिछले जन्मों के विषय में भूल जाते हैं । अन्यथा अपने इस जीवन के क्रियाकलापों को संभालते हुए पूर्वजन्म के संबन्धों का भी स्मरण रहना कितना कष्टप्रद होता ।

कल्पना करो कि कोई बच्चा यदि पानी में जाने से डरता हैतो हो सकता है उसके मां बाप और रिश्तेदारों ने उसके अदंर यह भय बैठाया होगा. अगर एसा नही है तो यह तय है कि पिछले जन्म में उसकी मौत पानी में डूबने से हुई होगीया फिर उसकी मौत के पीछे पानी ही कोई कारण रहा होगा। इसी तरह हम सब सांप से डरते है कुछ तो इस कदर डरते है की उसका चित्र देखाकर भी उनका चेहरा भय से सफेद हो जाता है. जब की इस जन्म मे उन्होने कभी सांपो का सामना नही किया. वंही कुछ आसानी से सांप से एसे खेलते है जेसे वो कोइ रस्सी का टुकडा हो. आप ओरों की छोडीये आप अपने अदंर मोजूद डर का विशलेष्ण करेगे तो कुछ डर आप एसे पायेगे जिस का कोइ सिर पैर नही है.  
कुछ मनोविज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार करने लगे है कि हमारी कई आदतें और परेशानियां पिछले जन्मों से जुड़ी होती हैं। कई बार हमारे सामने ऐसी चीज़ें आती है या ऐसी घटनाएं घटती हैंजो होती तो पहली बार हैं लेकिन हमें महसूस होता है कि इस तरह की परिस्थिति से हम पहले भी गुजर चुके हैं। चिकित्सा विज्ञान इसे हमारे अवचेतन मन की यात्रा मानता हैऐसी स्मृतियां जो पूर्व जन्मों से जुड़ी हैं। बहरहाल पुनर्जन्म अभी भी एक अबूझ पहेली की तरह ही हमारे सामने है। ज्योतिषधर्म और चिकित्सा विज्ञान ने इसे खुले रूप से या दबी जुबान से स्वीकारा तो है लेकिन इसे अभी पूरी तरह मान्यता नहीं दी है।

पुनर्जन्म आज एक धार्मिक सिद्धान्त मात्र नहीं है। इस पर विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों एवं परामनोवैज्ञानिक शोध संस्थानों में ठोस कार्य हुआ है। वर्तमान में यह अंधविश्वास नहीं बल्कि वैज्ञानिक तथ्य के रुप में स्वीकारा जा चुका है। पुनरागमन को प्रमाणित करने वाले अनेक प्रमाण आज विद्यमान हैं। इनमें से सबसे बड़ा प्रमाण ऊर्जा संरक्षण का सिद्धांत है। विज्ञान के सर्वमान्य संरक्षण सिद्धांत के अनुसार ऊर्जा का किसी भी अवस्था में विनाश नहीं होता हैमात्र ऊर्जा का रुप परिवर्तन हो सकता है। अर्थात जिस प्रकार ऊर्जा नष्ट नहीं होतीवैसे ही हम यह क्यों नही मान लेते की चेतना का नाश नहीं हो सकता। चेतना तो ऊर्जा से भी उच्चतम अवस्था हैं।

चेतना का मात्र एक शरीर से निकल कर नए शरीर में प्रवेश संभव है। पुनर्जन्म का भी यही सिद्धांत है। जब भौतिक जगत मे कई पदार्थ मिलकर नई रचना कर सकते है और बने रह सकते है तो उसी प्रकार चेतना भी अपनी र्विकास कर सकती है. 
 
इसे समझने के लिए मे आपको एसी प्रवासी तितली के बारे मे बताता हू जो हर साल 5000 किलोमीटर का माइग्रेसन करती है, वो है मोनार्क तितली. इसके बारे मे जितनी जानकारी इकठ्ठा कर रहा हू उतना ही यह छोटा सा जीव मुझे अचंभित कर रहा है. 3 से 4 सेंटीमीटर का 0.5 ग्राम से भी कम वजन का यह जीव शरीर के अनुपात मे 150,000,000 गुना दूरी तय करता है अगर इसकी तुलना इंसानो के शरीर अनुपात से की जाये तो वो करीब 2.5 लाख किलोमीटर होगी. यानी पृथ्वी के 11 चक्कर के बराबर. 

पक्षी के तुलना मे इनका शरीर का डिजाइन भले ही कमजोर हो पर इनकी इच्छा शक्ति गजब की है. प्रवासी पक्षीयों की तुलना में यह जीव अपनी सीमित शरारिक क्षमता के बाबजूद उसका भरपूर उपयोग कर असंभव को कर दिखाता है. इसका माइग्रेसन पक्षीयों के माइग्रेशन से पूरी तरह अलग है क्योंकी पक्षी अपनी जीवन काल मे ही माइग्रेशन कई बार कर लेता है.

यह तितली कनाडा से मैकिस्को तक का 5000 किलोमीटर तक का सफर तय करती है जिसे वो करीब दो महिनों मे पूरा करती है. मजे की बात यह है की पूर्ण विकसित तितली का जीवन काल मात्र 2 से 4 हफ्ते का होता है छोटी सी जान अपने जीवन काल मे बस एक बार वो भी एक तरफ का की रास्ता और वो भी अधूरा रास्ता ही तय कर पाती है. यानी की कनाडा से चली तितली मैकिस्को तक वो बीच मे ही खत्म हो जाती है,  उसके बच्चे मेकिस्को पहुचते है. इसी तरह जो मैकिस्को मे पैदा हुये वो उडकर कनाडा जाते है, पर उसकी अगली पीढ़ी ही कनाडा पहुच पाती है . इस तरह यह आने जाने का सिलसिला चलता रहता है.

जेसे ही वो अपने गंतव्य पर पहुचती है वो समझ जाती है और वंहा से वापस जाने का क्रम शुरू करना है जो अकसर उसके बच्चे शुरू करते है जिन्हे गाइड करने के लिये उनके मां बाप नही होते. फिर वो केसे समझ लेते है की उन्हे कंहा जाना है किस रास्ते से जाना है और किस तरह जाना है. हो सकता है इसका रटा रटाया सा जबाब आप दे की यह सब उसके जींस मे लिख दिया गया है उसके DNA मे है. अजीब है ना की जिस तितली ने कभी पूरा सफर अपने जिदंगी मे कभी नही देखा उसके DNA में पूरा सफर दर्ज है. क्या सुनने मे आपको अजीब नही लगता.

सदियों से यह एसे ही चल रहा है. इस बीच इंसानी तरक्की ने शहरों को बनाया जंगलों को उजाडा बडे बांध बनाये... यानी की रास्ते को समझने के निशान बदलते रहे. इस छोटी सी जान को हवा भी अपने रास्ते से दूर उडा ले जाती है उसके वाबजूद यह अपने सही रास्ते को खोज लेती है.

दुनिया भर के वैज्ञानिक पिन हेड जितने छोटे से दिमाग को समझ्ने की कोशिश कर रहे है किस तरह वो सही नेवीगेशन कर पाती है. वैज्ञानिकों का कहना है की उसका नेवीगेशन इतना सटीक होता है की जिस पेड पर उसके पूर्वजों ने डेरा डाला वो उसी पेड पर वो वापस पहुच जाती है.

यह इतनी समझदार है की अपनी उर्जा बचाने के लिये हवा के बहाव का बेखूबी इस्तेमाल करते हुये एक दिन मे बडी दूरी तय कर लेती है उसके लिये वो 3000 फिट की उचाई पर उडती देखी गई है. बरसात और बर्फीले तूफान के समय वो सुरक्षित स्थानों पर छुप कर अपने को बचाती है.

ये रात मे सफर नही करती इसलिये वैज्ञानिक कहते है की सूर्य से दिशा निर्देश लेती है. अजीब है जो सूर्य धरती पर पल पल अपनी जगह बदल रहा हो उससे वो छोटी सी जान केसे दिशा निर्देश लेती होगी. खेर एक ना एक दिन हमारे वैज्ञानिक इस बात का पता लगा ही लेंगे.

मेरा कहना बस इतना है की 5000 किलोमीतर का सफर करने के लिये और भी बहुत सी तैयारी की जरूरत होगी. सफर मे आने वाली दिक्कतों का उसे अनुमान होना चाहिये की उसे कंहा और कब रूकना है किस जगह उसे खाने को मिलेगा किस जगह उसके दुश्मन मिलेगे, कोन उसके दोस्त है कोन दुश्मन.

बाकी जीव यह सब अपने मां बाप और अपने कुनबे से सीखते होंगे पर यह बिचारी किससे सीखे..उसके सीखाने वाले तो उसके पैदा होने से पहले ही अलविदा हो जाते है, क्योंकी अंडे से पूर्ण विकिसित तितली बनने मे उसे करीब एक महिने क समय लगता है. शायद ही किसी तितली के भाग्य मे अपने मां- बाप को देखना लिखा होता है. फिर भी वो विरासत को पा जाती है. उस रास्ते पर एसे चल निकलती है जेसे वो उसका जाना पहचाना रास्ता है.

मुझे खुशी होगे अगर कोइ भारतीय मोनार्क तितली के बारे मे जानकारी दे सके. मै खुद भी इस बारे मे इंटरनेट पर जानकारी खोजने की कोशिश करूगा.  यह वो सब केसे कर पाती है, इस बारे मे जितना सोच पाता हू. उतना ही यह विश्वास मजबूत होता जाता है की हम अपनी विरासत मात्र पदार्थ ( जींस) रूप मै ही अपनी पीढी को नही सोंपती, वो खुद भी चेतना रूप मे आने वाले पीढी मे मोजूद रहती है. 

 यानी जीव के खत्म होते ही सब कुछ खत्म नही होता है, उसकी चेतना जीवित रहती है.  इस के लिये  मोनार्क तितली से बेहतर ओर कोन उदाहरण हो सकता है.


हिन्दू मतानुसार हमारा भौतिक शरीर पांच तत्वों पृथ्वीजलअग्निवायु और आकाश से मिलकर बना है। मृत्यु के पश्चात शरीर पुन: इन्हीं पांचों तत्वों में विलिन हो जाता है और चेतना  शरीर से  मुक्त हो जाती  है। एक समय तक मुक्त रहने के पश्चात आत्मा अपने पूर्व कर्मों, संस्कारों और इच्छाओं  के अनुसार पुन: एक नया शरीर प्राप्त कर सकती है। इस प्रकार जीवात्मा का जन्म मृत्यु  चक्र चलता रहता है।

मै कुछ स्थापित नहीं करना चाहता...मुझे जो पता था ईमानदारी से रख दिया है...सच तो मै भी जानना चाहता हूँ,,,किसी पक्ष के भी तर्क मुझे आसानी से पचते नहीं....विज्ञान का विद्यार्थी हूँआप सभी से एक अनुरोध है....आप शोध करें,,अनुभव लिखें.... मुझे जो समझ आया मैंने लिखा है,,,...लिखने के पीछे कारण आप लोगों से मार्गदर्शन की ही है. जब तक सच जान नही लेता खुद को अज्ञानी ही समझूगाखोज लगातार जारी रहेगी. मन सवाल करता रहेगा और उसके जबाब की खोज मे लगा रहेगा. सहिष्णु होकर सभी संभावनाओं पर विचार करते रहना चाहिये. भला को इंटरनेट का की इतनी सारी चेतानाओं के साथ इतनी आसानी से संपर्क मे हू .


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