Tuesday, June 3, 2014

5 जून विश्व पर्यावरण दिवस क्या अहमियत है इसकी?


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विश्व पर्यावरण दिवस, ऐसा दिवस जो दुनिया वालों को याद दिलाता है कि उन्हें इस धरती के पर्यावरण को सुरक्षित रखना है, उसे अधिक बिगड़ने से रोकना है, उसे इस रूप में बनाए रखना है कि आने वाली पीढ़ियां उसमें जी सकें । लेकिन यह दिवस अपने उद्येश्यों में सफल हो भी सकेगा इसमें मुझे शंका है । काश कि मेरी शंका निर्मूल सिद्ध हो! कुछ भी हो, मैं पर्यावरण के प्रति समर्पित विश्व नागरिकों की सफलता की कामना करता हूं । और यह भी कामना करता हूं कि भविष्य की अभी अजन्मी पीढ़ियों को पर्यावरण जनित कष्ट न भुगतने पड़ें।
अभी तक वैश्विक स्तर पर अनेकों दिवसघोषित हो चुके हैं, यथा इंटरनैशनल वाटर डे’ (22 मार्च), ‘इंटरनैशनल अर्थ डे’ (22 अप्रैल), वर्ल्ड नो टोबैको डे’ (31 मई), ‘इंटरनैशनल पाप्युलेशन डे’ (11 जुलाई), ‘वर्ल्ड पॉवर्टी इरैडिकेशन डे’ (17 दिसंबर), ‘इंटरनैशनल एंटीकरप्शन डे’ (9 दिसंबर), आदि । इन सभी दिवसों का मूल उद्येश्य विभिन्न छोटी-बड़ी समस्याओं के प्रति लोगों का ध्यान खींचना, उनके बीच जागरूकता फैलाना, समस्याओं के समाधान के प्रति उनके योगदान की मांग करना है, इत्यादि । परंतु यह साफ-साफ नहीं बताया जाता है कि लोग क्या करें और कैसे करें ।
पर्यावरण शब्द के अर्थ बहुत व्यापक हैं । सड़कों और खुले भूखंडों पर आम जनों के द्वारा फैंके जाने वाले प्लास्टिक थैलियों और कूडे तक ही यह सिमित नहीं है। शहरों में ही नहीं गांवों में भी कांक्रीट जंगलों के रूप में विकसित हो रहे रिहायशी इलाके पर्यावरण को प्रदूषित ही करते हैं। भूगर्भ जल का अमर्यादित दोहन, नदीयों में मिलते शहरी नाले जहर और गंदगी घोल रहे है । हमारे शहरों एवं गांवों में फैली गंदगी का कोई कारगर इंतजाम नहीं है । ध्वनि प्रदूषण भी यदाकदा चर्चा में आता रहता है। जलवायु परिवर्तन को अब इस युग की गंभीरतम समस्या के तौर पर देखा जा रहा है। ऐसी तमाम समस्याओं के प्रति जागरूकता फैलाने की कोशिश की जा रही है एक दिवस मनाकर । क्या जागरूकता की बात सतत चलने वाली प्रक्रिया नहीं होनी चाहिए ? एक दिन विभिन्न कार्यक्रमों के जरिये पर्यावरण दिवस मनाना क्या कुछ ऐसा ही नहीं जैसे हम किसी का जन्मदिन मनाते हैं, या कोई तीज-त्योहार ? एक दिन जोरशोर से मुद्दे की चर्चा करो और फिर 364 दिन के लिए उसे भूल जाओ ?
मात्र जागरूकता से क्या होगा ? यह तो बतायें कि किसी को (1) वैयक्तिगत एवं (2) सामुदायिक स्तर पर करना क्या है ? समस्या से लोगों को परिचित कराने के बाद आप उसका समाधान भी सुझायें! कुछ दिन पहले कि बात है, क्रिकेट के एक दिवसिय मेच में प्रायजकों को अर्थ दिवस मनाने का सूझा...उन्होने मुस्कराते हुये क्रिकेटरों से साथ ग्लोब के पास फोटो खिचवाये. कुछ भावनात्मक लफ्फाजी की और फिर फल्ड लाईट में रात्री मेच शुरू ...यही उपभोक्ता वाद है. क्योंकी ऐसा कर खेलने वाला खुश खिलाने वाला खुश और खेल देखने वाला खुश. अगर उन्हे अर्थ दिवस की इतनी ही चिंता होती तो वो उस रात्री मेच के लिये जनता से माफी मांगते हुये उसे रद्द करते और मेच को दिन में कराते,. पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. अब आप बतायें ये किसे जागरूक बना रहे थे. 
चलिये आपने सब को जागरूक बना भी दिया तो प्रतिबद्धता एवं समर्पण कहां से लाएंगे ? क्या लोग वह सब करने को तैयार होंगे जिसे वे कर सकते हैं, और जिसे उन्हें करके दिखाना चाहिए ? उत्तर है नहीं । यह मैं अपने अनुभवों के आधार पर कहता हूं । मैं पर्यावरण की गंभीरतम समस्या जलवायु परिवर्तन का मामला एक उदाहरण के तौर पर ले रहा हूं । जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण पाने के लिए हम में से हर किसी को कार्बन उत्सर्जन घटाने में योगदान करना पड़ेगा, जिसका मतलब है कि जीवास्म इंधनों का प्रत्यक्ष तथा परोक्ष उपयोग कम से कम किया जाए । क्या आप कार चलाना बंद करेंगे, अपने घर का एअर-कंडिशनर को बंद करेंगे, कपड़ा धोने की मशीन का इस्तेमाल बंदकर हाथ से कपड़े धोएंगे, अपने विशाल घर में केवल दो-तीन सीएफएलबल्ब जलाकर गुजारा करेंगे, और हवाई सफर करना बंद करेंगे, इत्यादि-इत्यादि ? ये सब साधन जलवायु परिवर्तन की भयावहता को बढ़ाने वाले हैं । जिनके पास सुख-सुविधा के ये साधन हैं वे उन्हें छोड़ने नहीं जा रहे हैं । इसके विपरीत जिनके पास ये नहीं हैं, वे भी कैसे उन्हें जुटायें इस चिंता में पड़े हैं । कितने होंगे जो सामर्थ्य हो फिर भी इन साधनों को स्वेच्छया कहने को तैयार हों ? क्या पर्यावरण दिवस सादगी की यह भावना पैदा कर सकता है ?
वास्तव में पर्यावरण को बचाने का मतलब वैयक्तिक स्तर पर सादगी से जीने की आदत डालना है, जो आधुनिक काल में उपेक्षा की दृष्टि से देखी जाने वाली चीज है। यह दिखावे का युग है, हर व्यक्ति की कोशिश रहती है कि उसके पास अपने परिचित, रिश्तेदार, सहयोगी अथवा पड़ोसी से अधिक सुख-साधन हों । यह मानसिकता स्वयं में ही स्वस्थ पर्यावरण के विपरीत जाती है।
जरा गौर करिए इस तथ्य पर कि पूरे विश्व का आर्थिक तंत्र इस समय भोगवाद पर टिका है । अधिक से अधिक उपभोक्ता सामग्री बाजार में उतारो, लोगों को उत्पादों के प्रति विज्ञापनों द्वारा आकर्षित करो, उन्हें उन उत्पादों का आदी बना डालो, उन उत्पादों को खरीदने के लिए ऋण की व्यवस्था तक कर डालो, कल की संभावित आमदनी भी आज ही खर्च करवा डालो, ये सब आज आधुनिक आर्थिक प्रगति का मंत्र है । हर हाल में जीवन सुखमय बनाना है, भले ही ऐसा करना पर्यावरण को घुन की तरह खा जाए ।
कुछ कार्य लोग अपने स्तर पर अवश्य कर सकते हैं, यदि वे संकल्प लें तो, और कुछ वे मिलकर सामुदायिक स्तर पर कर सकते हैं । किंतु कई कार्य केवल सरकारों के हाथ में होते हैं। पर इस सब से पहले यह तय करना जरूरी है कि उनके लिए आर्थिक विकास पहले है या पर्यावरण ? यह एक मजाक ही है कि एक तरफ पर्यावरण बचाने का संदेश फैलाया जा रहा है, और दूसरी ओर लोगों को अधिकाधिक कारें खरीदने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। मैं कारको आज के युग के उपभोक्ता साधनों के प्रतिनिधि के रूप में ले रहा हूं । कार से मेरा मतलब उन तमाम चीजों से है जो लोगों को दैहिक सुख प्रदान करती हैं और उन्हें शारीरिक श्रम से मुक्त कर देती हैं । क्या यह सच नहीं है कि बेतहासा बढ़ती हुई कारों की संख्या के कारण सड़कों का चौढ़ीकरण किया जाता है, फ्लाई-ओवरों का निर्माण किया जाता है, भले ही ऐसा करने का मतलब पेड़-पौधों का काटा जाना हो और फलतः पर्यावरण को हानि पहुचाना हो ?
ऐसे अनेकों सवाल मेरे जेहन में उठते हैं । मुझे ऐसा लगता है कि पर्यावरण दिवस मनाना एक औपचारिकता भर है । मुद्दे के प्रति गंभीरता सतही भर है, चाहे बात आम लोगों की हो अथवा सरकारों की, शायद यही कारण है कि हम कुछ लोगों का विकास हर कीमत पर करना चाहते है उसके लिये अगर जंगल बरबाद होते हो तो हो, किसान बरबाद होते है तो हो. खेत बरबाद होते है तो होने दो!
आंकडे इस बात के गवाह है कि विश्व की आबादी के 20% लोग इस ग्रह की 80% प्राकृतिक स्रोतो को खत्म करने के लिये जिम्मेदार है. वो ओरों की चिंता छोड  अपने लिये  जिये जा रहे है. वहीं दूसरी तरफ हाशिये पर खडे 80% अधिसंख्य लोग इन 20% के लिये काम करते हुये  अपनी जिंदगी के लिये जूझ रहे है.  यही वो 20% लोग है जो दूसरों को तो पर्यावरण खतरा,  ग्लोबल वार्मिंग, सूखा, बाढ, उर्जा खत्म, ग्लेशियर खत्म.. तो पानी खत्म शेर खत्म तो जंगल खत्म …. हम खत्म!!!. का पाठ पढाते है और खुद एसी के लिये भी स्टेंडवाय पावर रखते है .
जब कोइ मुझे समझाता है की सडक पर कचरा फेलाना पर्यावरण के लिये नुकासान देह तो मुझे उसकी बात पर हंसी आ जाती है की उसे सडक पर धुंआ उडाता ट्रक दिखाइ नही देता और पोलीथीन का टुकडा दिखाइ देता है. और वो जनाब भी, जिसने  पोलीथीन सडक छोडा था उस पर भीरी जुर्माने की दुहाइ देते हुये कार मैं ए. सी. आन कर चल देता है. शायद यह भौतिकतावाद से उपजी नई संस्कृति है जो इस बात पर जोर देती है जब तक कानून ना हो तब तक उस अमल ना करो चाहे उसे करना कितना ही जरूरी हो, और जब कानून बना दिया जाये तो उससे बचने के बारे मे पहले सोचो, और जब बचने का कोइ रास्ता ना हो तो सिर्फ कानून से बचने के लिये जितना जरूरी हो उतना भर कर दो.
इस सब के वाबजूद 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाना है और उन जाने-अनजाने लोगों को याद कर उन्हे प्रोत्साहित करना है जो भले ही छोटा हो पर पर्यावरण बचाने के लिये गंभीर प्रयास कर रहे है. उस पर बात करना जरूरी है, क्योंकी बाकी के 364 दिन हम दूसरे कामों में अति व्यस्त जो है. कम से कम यह हमे बताता है की हम किस तेजी के साथ जैवीय संकट पैदा कर रहे है. इस लेख को लिखकर मैं अपने को अपराधमुक्त महसूस नहीं कर रहा हू...बल्कि अपराध बोध का अनुभव कर रहा हू...क्या जाने शायद यही अपराध बोध पर्यावरण संरक्षण के लिये कुछ ठोस करने को प्रेरित करे.




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