Monday, March 7, 2011

डर्विन की क्रमिक विकास सिद्धांत- एक बहस

डार्विन की क्रमिक विकास बताता है कि मछली पानी से बाहर आई, वो हवा में सांस नही ले सकी. इसलिये हवा मे सांस लेने के लिये उसने गलफडे विकसित कर लिये. जब उसे जमीन पर चलने की इच्छा हुई तो उसके फिंस पेर में बदल गये और जब उसने उडना चाहा तो फिंस पंख में बदल गये. यह बात मुझे हजम नहीं हो पा रही है कि मछली ने चाहा और उसने अपने शरीर में बदलाव कर लिया क्योंकी मेंने भी बहुत चाहा की में भी हवा में उड सकू पर ऐसा कुछ नहीं हो पाया की मेरे पंख उग आते या ऐसा ही कुछ हो जाता. मेंने जब भी पानी में डुबकी लगाइ तो मुझे सांस लेन के लिये तुरंत बाहर आना पडा. बहुत चाहने पर भी मुझे समझ नही आ पा रहा की पानी में सांस ले पाने के लिये अपने को कैसे बदलू. मै ही क्या हजारों साल से हम इंसानों का इतिहास गवाह है की हमारे साथ ऐसा कुछ नही हुआ. ज्यादा से ज्यादा यह हुआ की हमने अपना कसरती शरीर  बना लिया और  हम पहलवान बन गये. वो भी हम अपनी संतानो को विरासत में नही दे पाये. यानी एक या दो पीढी के बाद उनकी संताने फिर वेसे ही बन गई.
जो लोग हजारों सालों से रेगीस्तान या फिर साइबेरिया में रह रहे थे वो चाह कर भी अपने शरीर को मौसम के अनकूल नहीं बना सके. चाह कर भी भालू की तरह अपने शरीर पर बाल नही उगा सके. या फिर ऊँट की तरह कम पानी के लिये अपने शरीर को उसकी तरह अनकूल नही बना पाये. जो भी किया अपने शरारीक क्षमता के अदंर जितना हो सकता था अपने को अनकूल बना लिया. उसने अपने शरीर को बचाने के लिये कपडों की खोज की. कम से कम पानी में जीना सीखा..उसने अपने मन को बदला नई खोज की पर अपने शरीर को नही बदल पाया. हमारे अपने शरीर में अपेंडिक्स जेसे बेकार हो चुके अंग है पर वो हमसे अलग नहीं हो सके ना ही हम उसे खत्म कर सके. हमारे नाखून अब भी उसी तरह बढते है जेसे पहले बढते थे ..हमे अब इन बढे हुये नाखूनों की जरूरत नहीं है पर फिर भी वो उसी रफतार से अब भी बढ रहे है. हम उनसे अब तक  निजात नहीं पा सके.
जिस बदलाब की बात डार्विन ने समझाने की कोशिश की वो एक जन्म में संभव नहीं था. शायद बदलाव कि रफ्तार इतनी धीमी रही होगी की जो बदलाव जीव चाह रहा होगा वो कई सौ जन्मों मे संभव हुआ होगा. वो चाह कर भी अंश भर इस जन्म में नहीं बदल सकते एसा कभी नही हुआ की किसी ने उडना चाहा और वो रातोंरात पंखो का मालिक बन गया. बद्लाव की रफ्तार बहुत धीमी रही होगी जो हुआ वो कई जन्मों के बाद संभव हुआ होगा. इसका मतलब यह हुआ की बदलाव उस शरीर का संभव नहीं है जो पैदा हो चुका है. और जो पैदा नही हुआ उसे केसे मालूम है की उसे क्या चाहिये और क्यों चाहिये? अगर विज्ञान की माने, तो जिसे बदलाब की जरूरत थी वो तो उसी शरीर के साथ खत्म हो गया.
इसका मतलब बदलाव तभी संभव है की जब उसे अगले जन्म में क्या और कैसे बनना है वो कम से कम उसे याद रहे. तभी तो वो अपनी रचना बदल सकेगा. और जो बदलाव हो रहे है उसे हर जन्म में एक सही दिशा दे सकेगा. अगर ऐसा है तो यह तो पुंनर्जन्म से ही सभंव है...पर विज्ञान तो पुंनर्जन्म को नहीं मानता.
क्रमिक विकास सिद्धांत में एक और दलील दी जाती है कि उत्त्पत्ति अनियमित, आकस्मिक, निरुद्देश्य, बेतरतीब, क्रम रहित, और  सहसा उत्पन्न घटनाओं का परिणाम है और प्राणी का शरीर विकास और बदलाव इन्ही घटनाओं का परिणाम है..मुझे इसमे कोई दम नजर नही आती.  इतना परिष्कृत, जटिल और विवेकी शरीर सिर्फ सहसा उत्पन्न घटनाओं का परिणाम है.
क्या आप यह मानने को तैयार है की लोहे का ढेर, कुछ कांच और रबर के सहसा अचानक बेतरतीव मेल से कार बन सकती है. नही ना..अगर कार जेसी साधारण चीज अगर बेतरतीव मेल का परिणाम नहीं हो सकती तो फिर चारों तरफ दिखाई देते करोडो जीव कैसे अनियमित, आकस्मिक, निरुद्देश्य घटनाओ का प्ररिणाम हो सकते है.
रंग बदलने वाली छिपकली या फिर पत्थरों मे छुपा लेने वाला समुद्री घोंघा..वो अपने को पत्थरों के बीच इसलिये छुपा पाता है की क्योंकी वो अपने शरीर का आस पास के पत्थरों जेसा बना लेता है. उसने यह सब केसे सीखा..! उसे केसे मालूम की उसका शरीर आसपास के पत्थरों जेसा हो सकता है,  और वो खुद को छुपा सकता है. एसे ही रंग बदलने वाली गिरगिट...जो आस पास के माहोल के हिसाब से अपने शरीर के रंग बदल सकती है. यह गुण उसने कैसे अपनाया होगा. उसने रंग बदलना कैसे जाना होगा ...उसे कैसे मालूम की यह सभंव है. बात साफ है कोई तो है जो इजाइनर का काम कर रहा है.
बिजली का कंरट मारने वाली मछली उसे कैसे मालूम की वो करंट मार सकती है. या फिर करंट मारने वाला अंग उसे कैसे बनाना है.  वो अंग अचानक पैदा नहीं हुये होंगे वो तो समझदार बुद्धीमान डिजाइन का नतिजा ही हो सकते है. कुछ जीवों के व्यवाहर को भी उसके जींस का हिस्सा बना दिया गया..उसे वो व्यवाहर उसे किसी से सीखना नहीं पडते. उसे जन्म से मालूम होता है.
किसी चौपाये के बच्चे को जन्म के बाद चलना कोन सिखाता है...हवा में सांस कैसे लेनी है उसे कोन बताता है ..वो पैदा होते ही वो सब करने लग जाता है. यह सब व्यबाहर उसके जींस का हिस्सा होते है जो काफी सोच समझकर उसके जींस का हिस्सा बनाये गये. मुझे नहीं लगता कि उस छिपकली को मालुम भी होगा की उसका रंग बदल सकता है या फिर उस घोंघे को मालुम होगा की उसके शरीर की बनावट आस पास मोजूद पत्थर की तरह है ओर उससे उसे छुपने में मदद मिलेगी ...वो ऐसा करता है कयोंकी यह व्यवाहर उसके जींस में मोजूद है. यह सब व्यवाहर आकस्मिक, निरुद्देश्य घटनाओं से संभव नहीं हो सकता.
यह जरूर हुआ होगा की अगर प्राणी अपनी जरूरत सिद्ध नहीं कर पाया या बदली हुई परिस्थति में अपने को ढाल नहीं पाया तो खत्म हो गया. डर्विन कुछ हद तक Survivial for the fittest बात को समझाने में सक्षम है की मौजूदा परिस्थति में वही जी पाया जो अपने को उसके अनकूल बनाते हुये अपनी क्षमता का पूरा उपयोग कर पाया. पर वो क्षमताये और विशेषताये कैसे विकसित करनी है उसे समझा पाने में वो असमर्थ है. पृथ्वी पर मोजूद जीवन की विविधता और उसका आपस में गहरा सबंध इस बात को बताता है की जीवों के शरीर में बदलाव तो हुये. साथ ही सभी जीवों में मोजूद एक सी प्रणाली यह बताती है की इनका आपस में सबंध है. एक नजर में देखने से ही लगता है जीव का क्रमिक विकास हुआ होगा... पर केसे ?
या फिर बदलना हमारी फितरत में नहीं, हमारे बस में है ही नहीं ..जिसको जेसा बना दिया वो वेसा ही रहा. समय और परिस्थ्ति के हिसाब से अगर वो अपने को बचा सका तो जिंदा रहा नहीं तो इतिहास में दफन हो गया.
जीव के शरीर का नक्शा उसके जींस में मोजूद DNA और RNA से निरधारित होता है. अगर वो अपने DNA और RNA को बदल सकता है, तो शायद वो अपने शरीर में मन चाहे बदलाव ला सकता है . पर क्या पृथ्वी में मोजूद जीवन में खुद ऐसा कर पाने की क्षमता है ? पर क्या सोचने से DNA और RNA में बदलाव आ सकता है. हमने किस्से कहानीयों में राक्षसों के बारे में पढा है जो अपने शरीर को मन मुताबिक बदल सकते थे. पर उसका कोई ठोस साक्ष्य उपल्बध नहीं है.
सवाल यह है की अमीबा से लेकर हम ईसानों तक का सफर और बीच में लुप्त हो गये डायनासार उन सब में क्या अपने शरीर को खुद बदलने की क्षमता थी?
बायोटेक्नोलीजी वैज्ञानिक क्रत्रिम कोशिका के निर्माण का दावा कर रहे है. कुछ हद तक आज वो जींस की पहेली को समझ पा रहे है और उनके साथ प्रयोग जारी है. जींस में फेर बदल कर जीवों को काफी हद तक बदला जा सकता है. कुछ लोग इसे ईश्वरीय काम में दखल बता रहे है.


Friday, March 4, 2011

6500 मिलियन इंसान जय हो!


6500 मिलियन की इंसान की आबादी से लदा यह ग्रह बहुत तेजी से बदल रहा है. इस बदलाव में हम इंसानो का बहुत बडा हाथ है. जंगल के कटने से और प्राकृतिक स्रोतो का अत्यधिक दोहन से अब हम सब संकट में है.  हमारा ग्रह अब पहले जेसा नहीं रहा वो तेजी से बदल रहा है. यह सच है की जंगल खत्म हो रहे है यह भी सच है की हमने अपने रहने के लिये और खाने के लिये इन्हे बुरी तरह बरबाद किया...अगर हम यह नहीं करते तो क्या करते...6500 मिलियन लोगो को खाने और रहने के लिये यह सब शायद जरूरी था. हम मानते है की हम इसकी बरबादी का कारण गये है.


पर क्या सिर्फ हम! हम ही नहीं ब्रह्मांड की और भी बहुत सी ताकते इस ग्रह को बदल रही है सच तो यह है की हम इसे बदले या ना बदले इसे तो बदलना ही है .इसलिये हमे हर परस्थिति में जीना सीखना होगा. हम में से कुछ लोग सहारा रेगीस्तान और साइबेरिया जेसी विषम परिस्थतियों और भीषण प्रदूषण में जी रहे है. यही वो लोग होंगे जो बदली हुई परस्थिति में जिंदा रह पायेगे.

जल्दी ही  10000 मिलियन का आकडा पार कर लेगे. इतनी बढी आबादी को खाना, रहना, ....यह सब इतना आसान नहीं है. हम इंसानों ने जिंदा रहने की जिद्दो जहद में बहुत कुछ सीखा है और लगातार हम हर दिन कुछ ना कुछ नया सीख रहे है...नेये उर्जा स्रोत पता करने, नया खाना..., वो समय दूर नहीं जब हम घास को खाने लायक बना देगें. सीधे मिट्टी से हमारी फेक्ट्रीयां  पेड़ पोधों की तरह खाना बाना सकेगीं.

हमारे लिये जगह की कमी होने वाली है इसलिये हम नये रहने विकल्प तलाश कर रहे है अब वो चाहे समुद्र के अदंर हो या सागर की लहरों पर तेरता शहर. हम जल्द ही अतिंरिक्ष और दूसरे ग्रहों को भी रहने लायक बना लेगे. हमे नहीं मालुम यह सब कैसे होगा, पर हम करेगे यह हमे मालुम है.

हम ही क्या जानवर भी अपने को बदलने में लगे हुये है ...अगर वो अपने को नही बदलेगे तो इतिहास बन जायेगे ...देखा नहीं आपने गाय भी अब हमारे द्वारा छोडा गया सडा गला खाना  सीख रही है, हो सकता है वो जल्द ही  प्लास्टिक को भी पचाने लगे. जंगली जानवर शहर की ओर भाग रहे ...अब अगर शेर को जीना है तो उसे हमारे साथ रहना सीखना होगा, वेसे ही जेसे कुत्तों ने हमारे साथ जीना सीखा. ...अरे आप तो बुरा मान गये.

अब हम सिर्फ शेर के लिये तो जंगल बचाने से रहे...अगर शेर को जिंदा रहना है तो उसे भी बदलना होगा.
सब कुछ बहुत तेजी से घट रहा है. जो विकास हजारों सालों मे नही हो सका वो हमने कुछ दशकों मे कर दिया. समय और लोगों के बीच की दूरिया कम होती जा रही है.  इसलिये आम अदमी दुविधा मे है. समय के साथ यह दुविधा खत्म होती जायेगी. क्योंकी समय के चक्र को उल्टा घुमाना अभी तो असंभव है. इसलिये हमें अपने को बदलते समय के साथ खुद को बदलते रहना होगा अब चाहे वो बदलना जीवन मूल्यों का ही क्यों ना हो!