Sunday, February 20, 2011

मेगा वाट से वाट की ओर

जब भी हम गैर पारंपरिक ऊर्जा से बिजली बनाने की बात करते है तो लागत और उच्च दक्षता की बात करते है और हम उसकी तुलना सरकार -द्वारा बनाए गए बङेबङे बिजली बोर्डों से मिलने वाली सस्ती बिजली से करने लगते है। देखने के लिए भले ही हमें ये सस्ती बिजली दे रहें है पर खुद हज़ारों करोङ के घाटे में डूबते जा रहे है। वैसे भी यह सस्ती बिजली हमें सरकारी सब्सीडी के बाद मिलती है। सरकार यह घाटा या तो ज़्यादा टैक्स लगाकर वसूल करती है या फिर ज़्यादा नोट छापकर, दोनों ही स्थति में उसका बोझ आम उपभोक्ता पर ही जाएगा। अब तो घाटा कम करने का एक और आसान इलाज मिल गया है। बिजली घरों, को ओनेपौने दाम पर बेच दो।

विद्युत को बनाने और वितरण करने के लिए 3 फ़ेज 50 हर्ट्ज - सिस्टम का जन्म हुआ। बङेबङे पॉवर हाउसों से बिजली सेकङों किलोमीटर तारों के द्वारा , अनेक ट्रासंफार्मरों से परिवर्तित होकर यह आम उपभोक्ता तक पहुँचती है। यह तरीक़ा अब तक तो ठीक था, पर अब इसकी ख़ामियाँ उजागर होने लगी है। जनरेशन, ट्रासमीशन और वितरण का यह नेट वर्क एक बहुत बङी सिनक्रोनस मशीन की तरह काम करता है। जितना बङा नेट वर्क उतना ही बङा ख़तरा उसके अस्थिर होने का बना रहता है। नेट वर्क फेल होने का डर हमेशा बना रहता है। इसके फेल होने से सारी व्यवस्था चरमरा जाती है।

जनरेशन, ट्रासमीशन और वितरण का यह कापलेक्स सिस्टम सरकारी और ग़ैरसरकारी एजंसियों की मनमर्जी के पर चल रहा है। सोचा गया था कि बङे पॉवर हाउस अपने साथ उच्च तकनीक और अच्छा प्रबंधन लेकर आएगें जिससे आम व्यक्ति को एक सस्ती और भरोसे मंद विधुत व्यवस्था मिलेगी। आज बङी परियोजनाएँ चाहे वो थर्मल हो, हाइड्रो हो या न्यूक्लियर, अपने साथ पर्यावरण तथा विस्थापन जैसी गंभीर समस्याएँ साथ लेकर आती है। कुप्रबंधन और धन की कमी के कारण बङी परियोजनाएँ महगी भी साबित हो रही है। पॉवर हाउसों की टरबाईनों और जनेरेटरो की दक्षता हमने भले ही उच्च स्तर की प्राप्त कर ली है पर ओसत वार्षिक उत्पादन 50% से 60% होने के कारण यह अपनी पूरी जिदंगी खराब दक्षता से चलने वाली साबित होती है।

हमारे देश में ओसत ट्रासमिशन बरबादी क़रीब 22 प्रतिशत है। इसलिए प्लांट चाहे पनी उच्च दक्षता पर चलता हो पर उपभोक्ता तक उसका सर आते आते यह सबसे खऱाब दक्षता वाले साबित होते है। इस व्यवस्था का विकल्प डिस्ट्रीब्यूटेड पॉवर सिस्टम हो सकता है। संसार की सभी पॉवर कम्पनियाँ डिस्ट्रीब्यूटेड पॉवर सिस्टम पर काम कर रही है। ब मेनटींनेंस फ्र.ी जनरेटर और उच्च दक्षता के माइक्रो टर्बाइन ौर फ्यूल सेल, सोलर सेल, वायु ऊर्जा के कारण यह सस्ता विकल्प बनकर उभर रहा है। इसमें लगने वाला कम समय और कम पूँजी के कारण यह लोकप्रिय भी हो रही है। आने वाले 10 से 15 सालों में जब पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों की कमी हो जाएगी तब हमें गैरपारंपरिक ऊर्जा से मिलने वाली बिजली पर निर्भर होना होगा।

अब सरकार के केले के बस की बात नहीं है कि वो पने दम पर सभी को बिजली सुनिश्चचित करा सके। हम सिर्फ़ गिनीचुनी कुछ बाङी परियोजना के के बल पर आने वाले समय में बिजली की कमी को पूरा नहीं कर सकते। बङे प्रोजेक्ट चाहे वो सरकारी हो या ग़ैरसरकारी, सस्ती बिजली की गांरटी नहीं है। इसलिए अब हमें मेगावॉट की बात ना कर किलोवाट और वॉट की बात करनी होगी। जिससे आम जनता की सीधी भागीदारी को बढ़ाया जा सके। उनके -द्वारा इस्तमाल की जाने वाली बिजली को बनाने और ख़र्च करने का नियंत्रण उनके पास होना चाहिए, ना कि सेकङो मील दूर बने बिजली घरों और कंट्रोल केंद्रों को। डिस्ट्रीब्यूटेड पॉवर जनरेशन में ऊर्जा स्रोत उपभोक्ता के नज़दीक होने के कारण ट्रासमिंशन में ऊर्जा की बरबादी कम होती है, उपभोक्ता इसे अपनी ज़रूरत के हिसाब से सचांलित कर सकता है।

हमें ऐसे सभी विकल्पों पर ध्यान देना होगा जिसे लोग आसानी से लगा और चला सके। अब उन्हें कम से कम अपने लिए बिजली खुद बनानी सीखनी होगी। तकनीकी तौर पर यह सभंव है, सरकार को  नियमों और पॉलसी में सुधार लाकर इन छोटेछोटे बिजली सयंत्रों को बढ़ावा देना चाहिए। ऐसे में गैरपारंपरिक ऊर्जा स्रोत  मुख्य भूमिका निभा सकते है। ख़ासकर सौर ऊर्जा और हवा ऐसा विकल्प बनकर उभरे है जो वातावरण को प्रदूषित किए बिना सस्ती बिजली उपलब्ध करा सकते है। इन उपकरणों का रखरखाव भी आसान है।

गैर पारंपरिक ऊर्जा स्र्तों से शहरों में बिजली शुरूआती तौर पर मँहगी ज़रूर हो सकती है पर इससे दूरदराज गाँवों में बिजली निश्चचित तौर पर सस्ती पङेगी और फिर सवाल मँहगी और सस्ती से बढ़कर उसकी उपलब्धता का है। गाँव की बात तो दूर आज हम शहरों को भी बिजली नहीं दे पा रहे है। चार से छः घंटे की बिजली कटौती आम बात है। जहाँ तक गाँवों की बात है, सिर्फ़ तार बिछाने से बिजली तो नहीं मिल जाती। ऐसे कितने गाँवों है जहाँ हम 24 घंटे बिजली दे पा रहे है। शायद एक भी नहीं है, अगर होता तो गीनीज बुक में उसका नाम आ जाता।

डिस्ट्रीब्यूटेड पॉवर जनरेशन सिस्टम की शुरुआत हम ऐसे गाँवों से कर सकते है जहाँ बिजली  नहीं पँहुची है। आज भी गाँवों में रात को रोशनी करने के लिए सरसों के तेल का दिया या फिर मिट्‌टी के तेल का लैंप या लालटेंन इस्तेमाल करते है । इसकी कमज़ोर रोशनी में पढ़ाई लिखाई का काम कितना कष्टप्रद है वो इसको इस्तेमाल करने वाले ही समझ सकते है। समय पर बिजली ना मिलने से फसलों की सिंचाई नहीं हो पाती और किसान की अच्छी भली खेती बरबाद हो जाती है। किसान मजबूरी में डीजल पम्प का उपयोग करता है। इसमें आने वाला ख़र्च निश्च्चित तौर पर गैर पारंपरिक ऊर्जा से मिलने वाली बिजली से ज़्यादा पङेगा। आज का गाँव वासी इसको समझ पा रहा है। कमी है तो उन्हें सही तकनीक समझाने की और उनके लिए कम ब्याज पर पूँजी की व्यवस्था करने की । गैर पारंपरिक ऊर्जा के क्षेत्र में सरकारी एवं ग़ैरसरकारी एजंसियों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है जो उनकी ज़रूरतों को सझकर उन्हें सही राय दे सकें।



हिन्दी में वेब साइट की जरुरत

सन 2002 तक 32% इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की प्रथम भाषा अँग्रेज़ी नहीं थी. विश्व भर में नान-इग्लिश के बीच में इंटरनेट की लोकप्रियता के कारण यह प्रतिशत बढ़ता ही जाएगा. विशेषकर तीसरी दुनिया में इसकी लोकप्रियता गोर करने लायक होगी. आगे आने वाले दिनों में इंटरनेट पर अँग्रेज़ी इस्तेमाल करने वाले अल्पमत में आ जाए तो कोई आश्चर्य नहीं.


इंटरनेट जानकारी का मुख्य स्रोत बन गया है. इसके साथ ही लोग मेल और चेट के द्वारा बहुत तेजी से एक दूसरे से जुड़ रहे है. इस में कोई दो राय नहीं कि ओपरेटिंग साफ्टवेयर में आये सुधार के कारण विश्व की नान-इग्लिश आबादी अब तेजी से इंटरनेट से जुड़ती जा रही है.

इंटरनेट अब खरीदने, बेचने, बेंकिग और अन्य ग्राहक सेवाओं का एक जरूरी माध्यम है. ग्राहक और विपणन सेवाएँ देने वाली साइटें बहुत तेजी से स्थानीय भाषाओं का प्रयोग अपनी साइटों पर कर रही है. बाजार नियंता बहुत जल्द ही यह बात समझ गये कि अगर वे ग्राहक को उनकी अपनी भाषा और सांस्कृतिक पृष्ट-भूमि को ध्यान में रखकर अगर वो ग्राहक के पास पहुंचगे अधिक सफल होंगे. इस बात को टीवी, प्रिंट और फिल्म मिडिया ने बहुत ही जल्द समझा और वो ग्राहक को उसकी भाषा में अनुवाद या प्रसारण करने लगे. बाजार के ग्लोबल होने के बाद यह और भी जरूरी हो गया था.

अब ग्राहक को सेवाए दे रहे काल सेंटर हो या ग्राहक के दरवाजे की घंटी बजाता सेल्समेन वो ग्राहक की भाषा की अनदेखी नहीं कर सकता. बाजार में मोजूद अधिंकाश बहुराष्ट्रीय कंपनीयों को यह बात समझ में आ गई कि अगर बाजार में उन्हे अपनी हिस्सेदारी बढ़ानी है तो उन्हे ग्राहक से उनकी भाषा बात करनी होगी. अब टीवी पर आने वाले प्रोग्राम हो या इंटरनेट वो इस बात की अनदेखी नहीं कर सकते.

सात इग्लिश बोलने वाले देशों को छोड कर अगर अन्य यूरोपीय, अफ्रीकन, एशियन देशों में जाए तो मालूम पड़ेगा की वो अपनी भाषाओं के साथ खुश है. उन्हें इस बात की ज्यादा चिंता नहीं है कि इग्लिश में बोल कर वो क्या बेच रहा है या क्या दे रहा है. वो अकसर अनदेखी कर देते है. इग्लिश उन्हें प्रभावित नहीं कर पाती. कई बार तो इग्लिश का असर ही उल्टा हो जाता है. वो उन्हें सुनना या देखना भी पसंद नहीं करते. यह बात इन देशों में जा कर ही समझा जा सकती है.



साधारण जन तक की भागीदारी देश के विकास में हो, यह उनकी अपनी भाषा के अधिकाधिक प्रयोग से ही सुनिश्चित की जा सकती है. ज्ञान -विज्ञान उनकी अपनी भाषा में हो. इंटरनेट इसके लिये अब एक सफल माध्यम बन सकता है. कंप्यूटरों का प्रयोग में आम लोगों की भागीदारी तब शुरू होगी जब इसमें लिखी हुई जानकारी उनकी अपनी भाषा में हो। उनकी अपनी भाषा में बनी अधिक से अधिक साइटें साधारण जन को इंटरनेट से जुडने का एक बड़ा कारण बन सकती है. प्रिंट मिडिया दिनों दिन मंहगा होते जाने से यह और भी जरूरी हो गया कि पुस्तकों का सस्ता विक्लप उपलब्ध हो.

जितने ज़्यादा लोग इंटरनेट पर ज़्यादा से ज़्यादा जानकारी हिन्दी और अन्य प्रचलित भारतीय भाषाओँ मे लिखेंगे उतने ही लोग कंप्यूटरों और इंटरनेट से जुडते जाएगे और कभी ना खत्म होने वाला सिलसिला फेलता जाएगा. जो अपने साथ विकास की असीम संभावनाए समेटे होगा.

अपने देश में हिन्दी में वेव साइट बनाने के बहुत सारे कारण गिनाए जा सकते है. पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा है. 113 करोड़ की आबादी वाले इस देश में 50 से 68 करोड़ की प्रथम भाषा / मातृ भाषा हिन्दी है. 12 से 22 करोड़ की द्वितीय भाषा हिन्दी है. अगर हम राजनीतिक कारणों को दरकिनार कर दे तो हिन्दी का प्रचार एवं प्रसार देश के अहिन्दी क्षेत्रों में भी इग्लिश से बेहतर है. हिन्दी उन्हें अपने ज्यादा करीब लगती है.

लाखों अप्रवासी भारतीयों के कारण बंगला देश, सिंगापुर , अमेरीका, यमन, केन्या, नेपाल, भूटान, पाकिस्तान, फिलिपींस, न्यूजीलेंड, दक्षिण अफ्रिका, युगांडा यूएई, ब्रिटेन, जाम्बिया, बोटस्बाना, जर्मनी में हिन्दी लोकप्रिय है.

भारतीय जनमानस में कंप्यूटर और इंटरनेट की बढ़ती लोकप्रियता और संचार माध्यम में आइ क्रांति से इंटरनेट अब देश के सुदूर हिस्सों में भी पहुंच गया है. यह अब कश्मीर से कन्या कुमारी तक आसानी से उपलब्ध प्रचार, मनोरंजन, प्रसार, ज्ञान और संपर्क का साधन है.

हिन्दी इस देश के करोड़ों जनमानस की अपनी भाषा है. अगर कोई कंपनी अपने ग्राहक के लिये हिन्दी में वेव साइट बनाती है तो हिन्दी में बनी वेब साइट देखकर उनके उपयोग कर्ताओं को लगता है कि ग्राहक के रुप में कंपनी उनका ध्यान रख रही है. वो ज्यादा प्रभावित होते है. अपने को भावनात्मक रूप से ज्यादा सुरक्षित महसूस करते है .

सर्च इंजन लोगों को इच्छित साइट पर पहुंचने में मदद करते है. आज चीन, जपान, और फ्रांस में गूगल, याहू या एम एस एन उतने लोकप्रिय नहीं है जितने उनके अपने घरेलू सर्च इजंन. ये उनकी अपनी भाषा में उनकी जरूरत को पूरा करते है. यह सीधे उनकी अपनी भाषा में बनी साइटों तक लोगों को पहुंचने में मदद करते है. और जब यह साइटे इनकी जरूरत पूरा कर देती है तो इन्हे अन्य किसी साइट पर जाने की जरूरत नहीं पड़ती. इसका असर इंटरनेट पर मौजूद अन्य कंपनीयों पर जो इन देशों में अपना व्यवसाय करना चाहती थी, पर पडने लगा. इस बात को गूगल, याहू या एम एस एन ने जल्द ही समझ लिया. वे और अन्य सर्च इंजन उनकी भाषाओं में अपने क्षेत्रीय संस्करणों के साथ आने लगे.

यही हाल अब हमारे यहाँ होने लगा है. बड़ी संख्या मे इंटरनेट से ऐसे लोग जुड़ रहे है जो अग्रेंजी से कही ज्यादा हिन्दी के करीब है. युनीकोड के कारण हिन्दी में वेव साइट बनाना आसान हो गया. सर्च इंजन इन्हें आसानी से सर्च कर सकते है. गूगल, याहू या एम एस एन और अन्य सर्च इंजन हिन्दी के साथ सर्च और मेल करने की सहूलियत दे रहे है. लोग अब अपने ब्लाग हिन्दी में लिखने लगे है. अभी हाल ही में हिन्दी में विकिपीडिया इस तरफ उठा हुआ एक अभूतपूर्व कदम है । इससे वह सारी जानकारी आम लोगो तक पहुँच रही है, जो अन्य किसी साधन से दुर्लभ थी।

माइक्रोसॉफ्ट ने TBIL या TBIL Data Converter बनाया है. जो कि भारतीय भाषाओं मे लिखे हुए लेखों को एक फॉंन्ट से दूसरे फॉंन्ट मे बदल देता है। इस टूल का एक महत्वपूर्ण उपयोग तरह-तरह के नॉन-यूनिकोड फॉंन्ट्स मे लिखे हुए लेखो को यूनिकोड मे बदलने में है । इस प्रकार इंटरनेट पर उपलब्ध तमाम हिन्दी टैक्स्ट जो सर्च के लिये उपलब्ध नहीं थे. उसे TBIL से यूनिकोड में बदल कर सर्च के काबिल बनाया जा सकता है. इन साइटों पर मोजूद टूल्स की मदद से हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में वेब पेज आसानी से बनाए जा सकते है.

आज विंडो XP प्रोफेशनल ऑपरेटिंग सिस्टम और उसके बाद के ससंकरण वेब पेज बनाने में मददगार हो रहे है. हिन्दी मे ईमेल लिख्नना और वेब पेज बनाना बहुत ही असान हो गया है । अब् आप किसी भी साधारण ईमेल सॉफ्टवेयर से हिन्दी में ईमेल लिख सकते हैं । जैसे माइक्रोसॉफ्ट आउटलुक, जीमेल, याहू इत्यादि । हिन्दी में इंटरनेट पर आसानी से वेबपेज बनाने के लिये आजकल कई मुफ्त टूल उपलब्ध हैं ।

हिन्दी का प्रचार और प्रसार सिर्फ संवेधानिक प्रतिबद्धता ना रहकर अब ग्लोबल बाजार की जरूरत है. बहुराष्ट्रिय कंपनीयों ने इसे समझ लिया है. हम और आप भी इस बात को जितना जल्दी मझ कर अपना सक्रीय सहयोग देंगे उतना ही हमारे अपने भविष्य के लिये अच्छा होगा.



Natural therapy for opening the veins of the heart.

HEART PROBLEMS? DON'T WORRY !!!


Natural therapy for opening the veins of the heart.

Lemon juice 01 cup

Ginger juice 01 cup

Garlic juice 01 cup

Apple vinegar 01 cup

Mix all above and boil in light flame approximately half hour, when it becomes 3 cups, take it out and keep it for cooling. After cooling, mix 3 cups of natural honey and keep it in bottle.

Every morning before breakfast use one Table spoon regularly. Your blockage of Vein's will open.

No need now for any Angiography or By pass…



Prof. Dr. S. Vikineswary

Biotech Division , Institute of Biological Sciences

University of Malaya . Kuala Lumpur, Malaysia

Tel: 603-79674349 , Fax : 603-7967 4178

E-mail: viki@um.edu; vikisaba@yahoo.com



6 hats thinking technique

Any problem solving thinking is a complex process and envolves  emotion, logic, information, hope, and creativity in achieving to a complete solution . In a normal thinking process we deal all these attributes at a time and we swing unknowingly between these attribues resulting unefficeint way of thinking.  All these attributes dealing together makes thinking complex, and we know that complexity is the biggest enemy to the decision as complexity leads to confusion.
When thinking is simple and clear it becomes more enjoyable and effective, so first purpose is to simplify thinking by allowing a thinker to deal with one attribute of thinking at a time instead of taking emotion logic information hope and creativity all at same time. This is more true with board meetings or where number of persons are involved in decision making. there is nothing more sad and waste full than a roomful of intelligent and highly paid people waiting to a chance to attack something  speaker has said.
Argument way of thinking is what we all adopt in day to day of problem solving technique. it is the same process by which judge in court room listen to the arguments of lawyer and take decision on a case. we all know that lawyer never tells the whole truth. they will put only those facts and arguements which support his point of view. resulting into inefficient, ineffective and extremely slow decision making. many times far away from truth and right decision.  2400 years we have been content with argument type style which were best suited to estabilish and verfiying and matching the already exisiting patterns.
From past experience we forms definition, principle, categories, pattern. When we come across anything problematic if it matches with already exisiting pattern in our memory we act as per the standard reaction set in our subconcious mind or as per already set procedure available to us for such given situation.
we judge, we argue to find out which of the principle, categories, pattern it covers. we try to find answer what it is, based on our past experience and go ahead with the solution. e.g a doctor receives a child with a rash. Doctor immedialtely think of possible boxes is it sun burn or a food allergy is it measles..then doctor examine sign and symptom and make the judgment if the doctor find the measles condition then the treatment of measles start. That’s the traditional thinking as the best. From the past we creat templates of standard situation we judge into which standard situation a new problem falls, once judgement made then course of action is clear.
Such system work well in stable worlds. As standard situation of past will apply. Now in fast changing world, the standard situation of the past may not apply.

what is it, is not enough we have to shift from what it is to what can be. Instead judging an way forward we need to design an way forward. We need to think what can be..not just what it is. What it is style  resist new ideas, new solutions, new design. Discovering what is may not be the same as desgining what can be.
To overcome this problem Edward de Bono developed six hats style of thinking. It uses fullest potential of intelligence experience and information and remove ego from discussion. Six hat is based on an understanding of how brain chemical changes the mode of thinking.
"Six Thinking Hats" is a powerful technique that helps you look at important decisions from a number of different perspectives. It helps you make better decisions by pushing you to move outside your habitual ways of thinking. As such, it helps you understand the full complexity of a decision, and spot issues and opportunities which you might otherwise not notice.
The main difficult in the thinlking is confusion, confusion arises more when we try  emotion, information, logic, hope and creativity at the same time. its like juggling with too many balls at a time.
What I am putting in this article is the concept which allows thinker to deal one attribute at a time. He should be able to seprate emotion from logic, creativity from information and hope from fear.
Many successful people think from a very rational, positive viewpoint, and this is part of the reason that they are successful. Often, though, they may fail to look at problems from emotional, intuitive, creative or negative viewpoints. This can mean that they underestimate resistance to change, don't make creative leaps, and fail to make essential contingency plans.
Similarly, pessimists may be excessively defensive, and people used to a very logical approach to problem solving may fail to engage their creativity or listen to their intuition.
If you look at a problem using the Six Thinking Hats technique, then you'll use all of these approaches to develop your best solution. Your decisions and plans will mix ambition, skill in execution, sensitivity, creativity and good contingency planning.
This tool was created by Edward de Bono in his book "6 Thinking Hats".

How to Use the Tool:
To use Six Thinking Hats to improve the quality of your decision-making, look at the decision "wearing" each of the thinking hats in turn.
Each "Thinking Hat" is a different style of thinking. These are explained below:



White Hat:
With this thinking hat, you focus on the data available. Look at the information you have, and see what you can learn from it. Look for gaps in your knowledge, and either try to fill them or take account of them. This is where you analyze past trends, and try to extrapolate from historical data.
Red Hat:
Wearing the red hat, you look at the decision using intuition, gut reaction, and emotion. Also try to think how other people will react emotionally, and try to understand the intuitive responses of people who do not fully know your reasoning.
Black Hat:
When using black hat thinking, look at things pessimistically, cautiously and defensively. Try to see why ideas and approaches might not work. This is important because it highlights the weak points in a plan or course of action. It allows you to eliminate them, alter your approach, or prepare contingency plans to counter problems that arise.
Black Hat thinking helps to make your plans tougher and more resilient. It can also help you to spot fatal flaws and risks before you embark on a course of action. Black Hat thinking is one of the real benefits of this technique, as many successful people get so used to thinking positively that often they cannot see problems in advance, leaving them under-prepared for difficulties.
Yellow Hat:
The yellow hat helps you to think positively. It is the optimistic viewpoint that helps you to see all the benefits of the decision and the value in it, and spot the opportunities that arise from it. Yellow Hat thinking helps you to keep going when everything looks gloomy and difficult.
Green Hat:
The Green Hat stands for creativity. This is where you can develop creative solutions to a problem. It is a freewheeling way of thinking, in which there is little criticism of ideas. A whole range of creativity tools can help you here.
Blue Hat:
The Blue Hat stands for process control. This is the hat worn by people chairing meetings. When running into difficulties because ideas are running dry, they may direct activity into Green Hat thinking. When contingency plans are needed, they will ask for Black Hat thinking, and so on.

You can use Six Thinking Hats in meetings or on your own. In meetings it has the benefit of defusing the disagreements that can happen when people with different thinking styles discuss the same problem.

A similar approach is to look at problems from the point of view of different professionals (e.g. doctors, architects, sales directors) or different customers.
Example:
The directors of a property company are looking at whether they should construct a new office building. The economy is doing well, and the amount of vacant office space is reducing sharply. As part of their decision they decide to use the 6 Thinking Hats technique during a planning meeting.
Looking at the problem with the White Hat, they analyze the data they have. They examine the trend in vacant office space, which shows a sharp reduction. They anticipate that by the time the office block would be completed, that there will be a severe shortage of office space. Current government projections show steady economic growth for at least the construction period.
With Red Hat thinking, some of the directors think the proposed building looks quite ugly. While it would be highly cost-effective, they worry that people would not like to work in it.
When they think with the Black Hat, they worry that government projections may be wrong. The economy may be about to enter a 'cyclical downturn', in which case the office building may be empty for a long time.
If the building is not attractive, then companies will choose to work in another better-looking building at the same rent.
With the Yellow Hat, however, if the economy holds up and their projections are correct, the company stands to make a great deal of money.
If they are lucky, maybe they could sell the building before the next downturn, or rent to tenants on long-term leases that will last through any recession.
With Green Hat thinking they consider whether they should change the design to make the building more pleasant. Perhaps they could build prestige offices that people would want to rent in any economic climate. Alternatively, maybe they should invest the money in the short term to buy up property at a low cost when a recession comes.
The Blue Hat has been used by the meeting's Chair to move between the different thinking styles. He or she may have needed to keep other members of the team from switching styles, or from criticizing other peoples' points.
Key points:
Six Thinking Hats is a good technique for looking at the effects of a decision from a number of different points of view.
It allows necessary emotion and skepticism to be brought into what would otherwise be purely rational decisions. It opens up the opportunity for creativity within Decision Making. It also helps, for example, persistently pessimistic people to be positive and creative.


Plans developed using the '6 Thinking Hats' technique are sounder and more resilient than would otherwise be the case. This technique may also help you to avoid public relations mistakes, and spot good reasons not to follow a course of action, before you have committed to it.

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these https://docs.google.com/fileview?id=0ByemygYrOVAdZTc4OTdiNjctNmI4MC00NjNmLTlhYjQtMGMyM2E4MjM2MDYx&hl=en

चींटी

जैसे ही मेने ब्रेड प्लेट से उठाइ देखा एक चीटीं तेजी से प्लेट पर ब्रड की तरफ आ रही है. मुझे उस पर थोडा सा गुस्सा आया...इस भुख्ख्ड को मेरी ही ब्रेड मिली...फिर अचानक मुस्कराया...चलो छोटी सी जान हे कितना खायेगी,  इसे ब्रेड खाने देते है... मै इतिंजार करने लग की कब वो ब्रेड खायेगी......मेरे आशचर्य का ठिकाना नहीं रहा जब देखा की वो ब्रेड के नजदीक तो चली आइ पर ब्रेड को छुआ भी नही और वापस लोट गई. ..उसकी इस अजीब हरकत ने मुझे अचंभे में डाल दिया. मैं ब्रेड खाना छोडकर... मेग्नीफाईंग ग्लास लेकर अपनी खोजी नजर उस पर टिका दी.

में ध्यान से उसे देखने लगा. वो कभी दांये..कभी बांये प्लेट पर घूम रही है....बैचेन सी. मैं ध्यान से उसकी हर हरकत को देखने लगा. उसका एटंना कभी दाये होता कभी बाये...जेसे किसी सिग्नल को पकडना चाहती हो. वो अकेली मेरी प्लेट पर थी. वो प्लेट से बाहर की और जाने लगी... वो बिना खाये ही प्लेट से वापस जा रही थी. मुझे उसका बर्ताव समझ नई आया. अगर उसे ब्रेड नहीं खानी थी तो मेज पर आयी क्यों. वो भी प्लेट के उपर ब्रेड के इतने नजदीक.
उसके जाते ही मेने जेम और मख्खन लगी ब्रेड का एक बड़ा सा बाइट लिया और उसे फिर ध्यान से देखने लगा...उसकी चलने की तेजी...पूरी मेज पर भागती फिरती..जैसे कुछ खोज रही हो.

वो पिछले द्स मिनिट से बिना रुके तेजी से इधर उधर भाग रही है ...इन सब मैं मुझे आफिस जाने का ख्याल भी नहीं रहा. लगा जेसे वो रास्ता भटक गई है.
डरी सी सहमी सी छोटी जान. शायद उसे किसी तीखी गंध ने अपने ग्रुप से भटका दिया था...या फिर हो सकता है किसी हवा के झोके ने उस इस मेज पर ला पटका हो. उसने 15 सेंकड से भी कम समय में मेज से एक सिरे से दूसरे सिरे तक की दूरी नाप ली. उसकी तेजी देखनेलायक थी. अगर वो मेरी जितनी बडी होती तो इसका मतलब था 15 सेंकड मेँ 2 किलोमीटर से भी ज्यादा का सफर. ऐसा वो आधे घंटे से कर रही है. उसकी तेजी में अभी भी कोई कमी नहीं.

ना जाने कितनी ताकत समायी है उसमे. उसकी बैचेनी अब देखी नहीं जाती,  मुझे उसकी मदद करनी चाहिये. उसे कागज के टुकडे के सहारे में उठाकर अपने आस पास देखता हू...सामने की दीवार पर एक चीटींयोँ के कतार है, में उसे वहां छोड् देता हू. मुझे नहीं मालूम की वो उसके अपने है या पराये. पर वो उनमेँ घुलमिल गई है. अब मैं उसे नहीं पहचान सकता. आफिस के लिये वेसे ही देर हो गई है काश उस जैसी स्पीड और ताकत मुझे भी मिल जाये

सफाइ और बिमारी

हर भोजन के बाद दांतों को ब्रुश करना हो सकता है दांतों के लिये हानिकारक यह हम नहीं अब यह बात टूथपेस्ट बनाने वाली एक कम्पनी बोल रही है. अब तक ये माना जाता था कि खाने के बाद पानी से कुल्ली कर लेने के बाद भी भोजन के कण दांतों के बीच फंसे रह जाते है और वहां सड़कर बैक्टीरिया पनपने की वजह बनते है इसलिये भोजन के बाद दांतों को भली प्रकार टूथपेस्ट और ब्रुश से साफ करने की सलाह दी।


अब टूथपेस्ट बनाने वाली ओर कम्पनी के सहयोग से किये गये एक शोध में पाया गया है कि ऐसा करना दांतों की ऊपरी चमकीली सफेद और सख्त परत ‘ इनेमिल’ के लिये हानिकारक हो सकता है। भोजन और कार्बो नेटेड पेयों के अन्दर उपस्थिति अम्ल भोजन के समय इस इनेमेल को कमजोर कर देते हैं। इस समय यदि ब्रुश कर लिया जाये तो इस कमजोर इनेमेल पर खरोंचें पड़ जातीं हैं और बार-बार ऐसा करने पर इसको गम्भीर नुकसान पहुंचता है। कार्बोनेटेड पेय पीते हैं या कोई खट्टा फल यथा मौसमी सन्तरा नीबू आदि दांतों की मदद से काट कर खाते हैं तो उसमें उपस्थित अम्ल भी दांतों के इनेमेल को नुकसान पहुंचाते हैं। ऐसे में यदि ऊपर से ब्रुश कर लिया जाये तो इस कमजोर हुये इनेमेल को काफी नुकसान पहुंचता है। अत: भोजन के बाद , विशेषकर उस भोजन या पेय जिसमें अम्ल की मात्रा ज्यादा हो यथा खट्टे फल, कार्बो नेटेड पेय, सॉस, केचअप आदि के बाद तुरंत ब्रुश नहीं करना चाहिये। अच्छा होगा की उसके बाद आप पानी से अच्छी तरह कुल्ला कर ले. फलों के रस या कोल्ड ड्रिंक आदि स्ट्रा से पियें और स्ट्रा को भी थोड़ा ज्यादा मुंह के अन्दर रखें ताकि पेय दांतों की ऊपरी सतह को न छुये।

इन पागलों को इतने दिन बाद यह बात समझ आई. अब हमारे लोगों को यह बात कब समझ आयेगी की टूथ पेस्ट या साबुन इतना जरूरी नहीं है. हम मुह को अच्छी तरह पानी से और उँगली का इस्तेमाल से कुल्ला करके या नीम की दातुन से भी भी वही ताजगी पा सकते है.

यही सवाल अब मेरा उन लोगों से हे जो साबुन से मल मल कर नहाते है और यही टनों साबुन दिनों दिन भुमीगत स्रोंतों या फिर नदी नालों में घुलकर हम सब के लिये जहर बन रहा है. यह सच है की साबुन हमारे शरीर से गंदगी हटाने मे मदद करता है. पर केसी गंदगी और कोन सी गंदगी. अकसर हम भ्रामक विज्ञापनों के जाल मे फंसकर अपने को गोरा और चिकना बनाने के चक्कर मे इन साबुनों को अपने बदन पर घिसते रहते है. नतीजा कई बार हम त्वाचा को गंभीर क्षती पहुचा देते है. उस पर मोजूद तेलिय ग्रंथी जो त्वाचा मे जरूरी नमी बनाये रखने मे मदद करती है उसे नुकसान पहुचा देते है.

जिस्म को सिर्फ पानी से मालिश कर उतनी ताजगी और सफाइ पा सकते है जितना हम साबुन मलकर पाते है. सच तो यह है की साबुन कुछ विशेष परिस्थति में ही इस्तेमाल होना चाहिये. जेसे अगर बदन पर ग्रीस या तेल लगा हो तो बेशक आप साबुन इस्तेमाल करे पर हम तो आदत से मजबूर झूठे प्रचार के कारण मल मल कर साबुन से नहाते है की वो हमे गोरा और हमारी काया को कचंन बना देगा. फायदे से ज्यादा अपनी त्वचा का नुकसान करते है.

अब बोलोगे की साबुन से नहीं नहायेगे तो बदन से बदबू कैसे आयेगी ...? अब ये किस ने कह दिया की साबुन बदबू भी भगाता है. वो भले ही त्वाचा की बदबू को कुछ देर के लिये कम कर भी दे. पर अदंर की बदबू का क्या करोगे! असल मे वो बदबू भगाता नहीं बदबू छुपाता है. अरे पहले सिर्फ पानी से अच्छी तरहा नहा कर तो देखो पानी मसाज करके देखो. कम से कम 5 मिनिट तक मसाज और उसका असर देखो.

अरे चाहो तो बदबू भगाने के लिये अलग से सेंट लगा लो. असल में साबुन भी यही करता है! हमारे यहां उमस भरी गर्मी और पसीने के कारण हालत खराब हो जाती है..पर उसके लिये हर बार साबुन लगाने की जरूरत नहीं है. यह सलाह में साबुन के पैसे बचाने के लिये नहीं दे रहा हू. वेसे भी अगर यह पेसे बच भी जाये तो किसी अच्छे काम के लगा सकते है. पर इस साबुन की गुलामी से अपने को मुक्त करके देखो.

मानो या ना मानो पर यह सच है कि में नहाने के लिये साबुन का इस्तेमाल ना के बाराबर किया जा सकता है. इसका आपकी बदबू भगाने या ताजगी से कोइ सीधा रिश्ता नहीं है. बदबू की कई दूसरी वजह भी हो सकती है. त्वाचा और दाँत के लिये डाक्टर से अलग से राय ली जा सकती है..खाने के बाद अच्छी तरह पानी के साथ कुल्ला करने से ज्यादा फायदा है.

साबुन का अपना महत्व है. इसलिये जब बहुत जरूरी हो तभी इसका इस्तेमाल करे.

अब यह वहम की साबुन बेक्टीरिया मारता है, हम सब को लुई पास्चर बना रहा है. साबुन से बेक्टीरिया कम होते हो? पर कितनी देर के लिये. ये तो हवा की तरह हमारे चारो और मोजूद है. खुद बेक्ट्रिया के वहम से लुई पास्चर 65 साल की जवानी में ही खुदा को प्यारा हो गये थे.

देखा जाये तो डिटोल साबुन की एक बोतल पूरे परिवार को साल भर के लिये काफी होनी चाहिये.

हां कपडे जरूर साबुन से धोने की मजबूरी है..पर उस पर भी खोज जारी है एसे कपडे की जो  शरीर के लिये आरामदेह हो और बिना साबुन के साफ होता हो अच्छा हो की पानी की भी जरूरत ना हो ऐसा कुछ की हवा के प्रेशर से ही वो साफ हो जाये. सोचो अगर ऐसा हो जाये तो हमारी पानी और प्रदूषण की कीतनी समस्या हल हो जायेगी....

जो बच्चे मिट्टी के साथ खेलते है उनकी प्रतिरक्षा प्रणाली जो बच्चे मिट्टी के साथ नहीं खेलते उनसे बहेतर  होती है। इसलिये अपनी प्रतिरक्षा प्रणाली को ताकतवर बनाए. पर उसके लिये हर बार साबुन की जरूरत नहीं है.

मुझे अकसर सिरफिरे सफाइ पसंद यात्री ट्रेन में सफर करते मिल जाते है जो खिड़की का परदा भी रुमाल से पकडकर खिसकाते है कि पता नहीं कैसे कैसे हाथोँ ने उसे छुआ होगा. बेड रोल की चादर से सीट साफ करते है और फिर अपने साथ लाइ हुई चादर बिछाते है. और दूसरोँ के लिये अपनी गदंगी फेलाकर चले जाते है. अकसर एसे लोगोँ से मेरी कहासुनी हो जाती है. जब भी कोई ऐसा मिल जाता है तो उनकी जम कर क्लास लेता हू. उन्हे एसे एसे सफाइ भरे किस्से सुनाता हू की उन्हे अपने आप से घिन आने लगती है.

शायद उन्हे मालूम नहीं कि टायलेट सीट से ज्यादा जीवाणुओ का घनत्व  मोबाइल या कम्प्यूटर की बोर्ड पर हो सकती है. Stuffed toys या फिर एसी ही चीजेँ जीवाणुओ से भरें हो सकते है. इसलिए एसा  विश्वास विकसित करें कि आपकी प्रतिरक्षा प्रणाली आपके शरीर की देखभाल करने में सक्षम है। और ये रोगाणु आपको तब तक नुकसान नहीं पहुंचाएंगे जब तक आपकी प्रतिरक्षा प्रणाली अच्छी  हो।

बेशक रोकथाम इलाज से बेहतर है लेकिन आपको रोकथाम के नाम पर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने का कोई अधिकार नहीं है?

हमे पब्लिक प्लेस की सफाइ का भी उतना ही ख्याल रखना चाहिये जेसा हम अपने लिये चाह्ते है कम से कम उसे और गंदा नहीं करे. आपकी अपने खुद की इस तरह की सफाइ का कोइ मतलब नहीं होता जब आपके आस पास गंदगी और खाने पीने के सामान में बेशर्मी की हद तक मिलावट हो.

पानी बचाइये…पानी कमाइये

पानी हमेशा से एक सामुदायिक संपत्ति रहा है। पुराने समय में पानी लेने के लिए हमें कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी क्योंकी इसके लिये नदी और तालाब जेसे स्रोतों के पास जाना पडता था या कुओं, बावडी, से पानी खीचना पडता था, लेकिन आधुनिक सदी में घर में पानी के सीधे पाइप से पहुंचा दिया। इससे हमारी मानसिकता में भी बदलाव आ गया। अब हम बड़ी आसानी से पानी ले लेते हैं। पानी का इतनी आसानी से मिल जाने से ही पानी की बरबादी शुरू हुई। इसका नतीजा ये हुआ की भूमिगत जलस्तर घट रहा है, हैंडपंपों में पानी खत्म हो रहा है। कुएं और बाबडी सूख रहे है. हमारी नादानियों के कारण पानी के मूल स्रोत नदी और तालाब और भूमिगत जल प्रदूषित हो रहे है.
महानगरों की आबादी का दबाब के कारण नलों में पानी हमेशा नहीं रहेगा। पानी की कमी के लिए लोग खुद जिम्मेदार हैं, उन्हें सीखना चाहिए कि पानी को कैसे और कितना इस्तेमाल करना है। पहले हैंडपंप से या कुओं से पानी खींचकर लोग सिमित पानी इस्तेमाल करते थे. खर्च हुये पानी की भरपाइ मानसून से हो जाया करती थी, लेकिन अब तो घरों में नल और फव्वारों से बेशर्मी की हद तक बरबादी होती है. पूरा का पूरा शहर भूमिगत जल से पानी लेकर उसे पीने और नहाने धोने का कार्य कर रहा है. उसका असर यह हुआ की भूजल तेजी से नीचे जा रहा है. किसी शहर में पानी की कमी होना एक भयावह स्थिति है। अगर हमारे पास पानी ही नहीं होगा तो 8-9 फीसदी आर्थिक विकास की बातें करना सब बेमानी ही है। कारखाने बंद हो सकते हैं। बड़ी मात्रा में विस्थापन हो सकता है।
ठीक है कुछ शहरों में ऐसी स्थिति हो सकती है जहां पानी थोड़ा-थोड़ा टुकड़ों में मिलता रहे पर बाकी शहरों में तो स्थिति भयावह ही होगी। इतिहास में एसे बहुत से शहर और सभ्यताए दर्ज है जो पानी की कमी की वजह से ही खत्म हो गये। पानी के लिए युध्द, शायद आज असंगत लगे पर जरा सोचिये, अगर हमारे शहर में दो तीन वर्ष लगातार मानसून धोखा दे जाये? आप देख रहे हैं कि आज गली महोल्लों में पानी के मारामारी तो मची रहती है, या फिर तमिलनाडू और कर्नाटक का जल विवाद हो या भारत-पाक जल विवाद हो या मलेशिया और सिंगापुर के बीच भी पानी को विवाद इसे लेकर संबंधों में तनाव स्थिति पहले से और खराब होती जा रही है.
अगर किसी ने 50 साल पहले कहा होता की एक दिन लोग पानी को बोतलबंद करके अच्छे दामों पर बेचेंगे तो शायद उसे लोग पागल समझते। लेकिन आज हो रहा है। पानी का निजीकरण हो रहा है। ऐसे में ही पानी की कालाबाजारी शुरू होती है। लोगों का शोषण और नियंत्रण करने के लिए पानी का इस्तेमाल होगा। आम आदमी पानी की कमी की मार झेल रहा है, जबकि दूसरी ओर पांच-सितारा होटलों में लोग आधे-आधे घंटे तक नहाते रहते हैं। यानी अगर आपके पास पैसा है तो आज आप पानी खरीद कर उसे बरबाद कर सकते है, पर वो दिन अब दूर नहीं जब पैसा भी पानी को नही खरीद पायेगा.
पानी की बरबादी रोकने के लिये और उसका एक समान वितरण के लिये सरकार द्वरा जल कर पूर्ण समाधान नहीं हो सकता क्योंकी यह पक्षपात पूर्ण है. इससे सिर्फ पैसे वाले लोग ही पानी को खरीदेंगे, जो पानी का मूल्य नहीं चुका पायेगे उन्हें यह नहीं मिल पाएगा। यह तो अन्याय होगा क्योंकी पानी तो एक बुनियादी जरूरत है.
ठीक है कुछ शहरों में ऐसी स्थिति हो सकती है जहां पानी थोड़ा-थोड़ा टुकड़ों में मिलता रहे पर बाकी शहरों में तो स्थिति भयावह ही होगी। पानी ज्यादा मात्रा में उपलब्ध नहीं है। पानी की समस्या का समाधान जल सरंक्षण, पानी को रिसाइकिल (परिशोधन), पानी का बुद्धीपूर्ण इस्तेमाल है, गंदे पानी को इस तरह रिसाइकिल (परिशोधन) किया जाना चाहिये की वो पीने के योग्य बन जाये. सिंगापुर इसका एक अच्छा उदाहरण है वहां गंदे पानी को रिसाइकिल (परिशोधन) किया जा रहा है और एक टी.वी. पर प्रसारित एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री जी वही परिशोधित पानी पिया था।
पानी का अधिक उपयोग सफाइ और धुलाइ में होता है. हमे उसके विकल्प को बढावा देना होगा. जो इस काम में पानी का कम से कम उपयोग सुनिश्चित कर सके. जेसे एरीयेटेड वाटर (हवा और पानी मिश्रित) वाले नल और शावर. एरीयेटेड वाटर पानी की खपत को सीधे 40% तक कम कर सकता है. हमे इजराइल जेसे देश से कम से कम पानी में खेती करने की तकनीक सीखनी चाहिये. जंगल और खनिज की तरह भूमिगत जल भी देश की संपत्ति मानकर इसके दोहन को नियंत्रित करना चाहिये. जल हार्वेस्टींग को विकल्प के तोर पर ना देखकर उसे गंभीरता से लेना चाहिये.
हम कार्बन पाइंट की तरह ही जल पाइंट अपनाकर पानी खर्चने की सीमा तय कर सकते है उससे ज्यादा खर्च करने वाले को फाइन और उससे कम खर्च करने वाले को प्रोत्साहन देने के लिये उसे इनाम दे सकते है वेसे ही जेसे कार्बन पाईंट दुनिया भर में उद्योग कमा रहे है इस विचार को आम जनता के बीच प्रचलन में लाना चाहिये जिससे कम से कम पानी के इस्तेमाल के लिये सभी प्रोत्साहित हो सके. पानी बचाना मतलब पैसा कमाना।

Sunday, February 13, 2011

13 फरवरी 2011 सिंगार चोली वन्य अभ्यावरण पाटनी गांव से नारद गुफा ट्रेकिंग संपन्न


भोपाल,


यूथ होस्टल्स एसोसियेशन ऑफ इंडिया बी.एच.ई.एल.इकाई भोपाल, द्वारा एक बार फिर से सदस्यों के मांग पर रविवार को एक दिवसीय ट्रेकिंग का आयोजन भोपाल शहर से 115 कि.मी.दूर बाडी जिला रायसेन (म.प्र.) स्थित सिंगार चोली वन्य अभ्यावरण परिक्षेत्र में ‘‘पाटनी गाँव से प्रकृति रूप से निर्मित आदिकाल की प्राचीन नारद गुफा का भ्रमण’’ श्री एस.ए.ए.नक्वी, श्री दीपेन्द्र अग्रवाल, श्री शैलेष अग्रवाल, श्री एम.एल.नागौर कार्यकारिणी सदस्य एवं स्थानीय निवासी श्री राजेश वैरागी के मार्गदर्शन में किया। जिसमें विभिन्न आयु वर्ग के 47 सदस्य समिम्मलित हुए। जिसमें सबसे कब उम्र 5 वर्ष की कु. गरीमा अग्रवाल थी।
इस ट्रेकिंग का मुख्य उद्देश्य सदस्यों को साहसिक कार्यक्रमों से परिचित कराना कि इससे हमारे जीवन में क्या लाभ है तथा 400 से 800 फिट चट्टानी पहाड़ी के ऊचाँई पर प्रकृति रूप से निर्मित आदिकाल कि प्राचीन गुफाओं का भ्रमण जो कि नारद गुफा के नाम से जानी जाती है और जिसके अन्दर जाने के लिए पूर्ण अंधेरे में 100 से 150 फिट लम्बे संकीर्ण मार्ग में एक एक करके सदस्यों को प्रवेश कराया गया अन्दर जाने के बाद गुफा में सभी सदस्यों ने समूह में बड़ी बड़ी लाईट एवं टार्च के सहारे 600 से 800 मीटर कि ट्रेकिंग कि
इस टेंªकिंग के दौरान खास चीज यह कि यहाँ पर न तो आक्सीन कि कमी महसूस हुई साथ ही चमदागड़ो के अलावा न ही किसी प्रकार के जीवन जन्तु का खतरा था पर इस स्थान को देखने के बाद आश्चर्य कि बात तो यह कि यहाॅ पर काफी समय पूर्व साधु महात्मा कैसे इस अंधेरी गुफा में रह कर पूजा पाठ करते थे जहाॅ पर अंधकार के अलावा ओर कुछ नही फिर भी गुफा में इस बात के प्रमाण के रूप में हवन कुंुड, आसन, चिमटा, त्रिशुल भगवान के चित्र इत्यादि आज भी सुरक्षित देखने को मिले एक खास बात इस गुफा कि यह इस के अनदर बहुत रास्ते बने हुए है जिसका अन्त नही मिलता फिर भी संस्था ने अपने 47 सदस्यों को इस गुफा का भ्रमण सुरक्षित सफलता पूर्वक कराया जिसमें 5 से 72 वर्ष के स्त्री पुरूष एवं बच्चे सम्मिलित थे।
वैसे तो इस स्थान पर अकेले व्यक्ति का जाना कभी भी संभव नहीं है। गुफा के अन्दर भूल भूलईयाॅ वाले रास्ते है जाने वाले रास्ते यदि चिन्हित नही किया तो वापस निकल पाना संभव ही नही है। वहाॅं के स्थानीय निवासीयों का कहना है कि एक बार एक व्यक्त् िअन्दर गया था जो 18 .19 दिन बाद वापस आ पाया
यही हमारे लिए गौरव कि बात है कि हमारे म0प्र0 में ऐसा प्राकृतिक स्थान है, संस्था कि सोच कि राज्य या केन्द्र सरकार के वन या पुरातत्व, विभाग इस स्थान को अपने अधीन कर आम जनो के भ्रमण के लिए विकसित कर तो अच्छा रहेगा। साथ ही इस स्थान की सुरक्षा भी होगी।
सदस्यों ने ‘पाटनी गाँव’ से लगे वन परीक्षेत्र में मुख्य सड़क से 01 किलोमीटर अंदर से अपनी ट्रेकिंग प्रारंभ की जो जंगल में ऊबड़-खाबड़ पहाडि़यो से होते हुए गुफा के मुख्य प्रवेश द्वार तक यहाॅ के स्थानीय निवासी कि मदद से ‘पाटनी गाॅव के खेतो के बीच से नारद गुफा के अन्दर तक 10 किलोमीटर कि दूरी तय कर नारद गुफा का भ्रमण किया।
इसके पश्चात सदस्यो ने ‘पाटनी गाॅव के पास मंदिर’ पहुचकर भोजन के पश्चात अपने मनोरंजन हेतु छोटा सा सांस्कृतिक कार्यक्रम किया इसके बाद हमारे साथ उपस्थित सदसयों को संस्था सचिव श्री अलकेश वैद्य ने भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय के खेल एवं युवक कल्याण विभाग द्वारा राष्ट्रीय संस्था द्वारा चलाए जा रहे यूथ होस्टल में ठहरने के विषय में सदस्यो को संपूर्ण जानकारी दी अंत में संस्था के संगठन संचालन एस.ए.ए.नक्वी, श्री एम.एल.नागौर एवं श्री आर.पी. सिंह संस्था कार्यकारिणी सदस्यों ने श्री अलकेश वैद्य, सचिव के मार्गदर्शन तथा स्थानीय निवासी श्री राजेश वैरागी कार्यपालक अभियंता वारना डेम एवं वन मण्डलाधिकारी वन विभाग के सहयोग से संपन्न कराया। जिसके लिए संस्था आभार व्यक्त करती है।