Thursday, June 24, 2010

striling walking beam working engine


This is a set of plans for a Stirling “hot” air engine. It incorporates a “walking beam” to transfer mechanical actions from one part of the engine to the other. The walking beam is on the upper half of the engine and looks like an old weight scales. Walking beams were quite common on early steam engine of the 1800’s. In this research, a gamma-type, low-temperature differential (LTD) solar Stirling engine. Click the link and make a working model

Sunday, June 13, 2010

हरित शौचालयः ईको फ्रैंडली टॉयलेट

आजकल सामान्य तौर पर उपयोग किये जाने वाले आधुनिक शौचालय (फ़्लश वाले शौचालय) का आविष्कार हुए सम्भवतः सौ वर्ष हो चुके हैं, हालांकि इस बात पर मतभेद हो सकते हैं, क्योंकि यह पता नहीं है कि फ़्लश शौचालय का आविष्कार असल में किसने और कब किया होगा। बहरहाल, करोड़ों लोगों के लिये जिन्हें रोजमर्रा के जीवन में यह फ़्लश शौचालय की सुविधा आसानी से हासिल है, और करोड़ों ऐसे भी लोग, जिन्हें यह आधुनिक सुविधा हासिल नहीं है, उन सभी के लिये एक मिनट रुककर सोचने का अवसर है कि लाखों टन प्रतिदिन उत्पन्न होने वाले “मानवजनित अपशिष्ट” के भविष्य के बारे में चिंता की जाए। क्या फ़्लश शौचालय उपयुक्त है? खासकर उस स्थिति में जबकि हमें यह पता हो कि थोड़े से अपशिष्ट को भी ठिकाने लगाने और हमारी आँखों और दिमाग से दूर हटाने के लिये बड़ी मात्रा में पानी लगाना पड़ता है।इसका उत्तर अलग-अलग हो सकता है। सच तो यही है कि भले ही फ़्लश शौचालयों ने हमें एक अद्वितीय सुविधा प्रदान की है, लेकिन पिछली शताब्दी में ये शौचालय, पर्यावरण स्वच्छता और आर्थिक बोझ के रूप में एक बुरा सपना ही साबित हुए हैं। इस मानव अपशिष्ट को उपचार संयंत्रों तक ले जाने वाली, पानीदार विशालकाय संरचनायें एक तरफ़ जहाँ निर्माण में बर्बादी की कगार तक महंगी हैं वहीं दूसरी ओर उनका रखरखाव भी बहुत खर्चीला है। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि अमेरिका और यूरोप के पुराने सीवेज पाइप लाइनों को अगर दुरुस्त करना हो अथवा बदलना हो तो तत्काल लाखों डालरों की आवश्यकता होगी। कोई नहीं जानता कि इतना पैसा कहाँ से और कैसे आयेगा? इससे भी बदतर स्थिति यह है कि अचानक आये हुए तूफ़ानों और बाढ़ के चलते सीवेज़ ट्रीटमेंट प्लांट (मलजल उपचार संयंत्र) पानी की अधिकता के कारण काम करना बन्द कर देते हैं, उस स्थिति में मलजल को बिना उपचार के नदियों अथवा समुद्र में ऐसे ही छोड़ने के अलावा कोई और रास्ता शेष नहीं होता। इस बारे में भारत में मौजूद व्यवस्था के बारे में कहना बेकार ही है। बिना उपचारित किया हुए मलजल का प्रदूषण, ज़मीन और भूमिगत जल पर कितना गहरा असर डालता है? न सिर्फ़ यह मलजल हमारे कुँओं, बावड़ियों, नहरों और नदियों के पानी को नाइट्रेट और पैथोजन्स से प्रदूषित करता है, वरन जब यह समुद्र में पहुँचता है तब समुद्री जल-जीवन और मूंगा की चट्टानों को घातक रूप से प्रभावित करता है। सब जानते हैं कि दिल्ली के नज़दीक से बहने वाली पवित्र यमुना नदी को हमने कैसे एक “राष्ट्रीय नाला” बनाकर रख दिया है। विडम्बना यह है कि जिसे हम “अपशिष्ट” या बेकार समझकर दूर-दूर नदियों और समुद्रों में छोड़ देते हैं, बहा आते हैं, वैज्ञानिक शोधों द्वारा अब यह साबित हो चुका है कि असल में वह अपशिष्ट मिट्टी और ज़मीन के स्वास्थ्य और खाद्य सुरक्षा के लिये उपयोगी मित्र साबित हो सकता है। क्या अब हम पुराने “चेम्बर पॉट” सिस्टम पर लौट सकते हैं? क्या शहरी जनता की “सुविधा” को तकलीफ़ में न बदलते हुए भी इस दिशा में कुछ किया जा सकता है? आर्थिक योजनाकारों, नीतिनियंताओं और यहाँ तक कि बड़े-बड़े पर्यावरणविदों के लिये भी जनता को इस बारे में समझाना मुश्किल है, खासकर शहरी जनता को, कि अब वे लोग फ़्लश टायलेट का उपयोग बन्द करके पुराने तरीके पर लौटें।चाहे तरल हो या ठोस रूप में, मानव अपशिष्ट के द्वारा एक उत्तम किस्म का उर्वरक बनाया जा सकता है, इसी प्रकार मानव मूत्र जिसे वैज्ञानिक सभ्य भाषा में ALW अर्थात “एंथ्रोपोजेनिक लिक्विड वेस्ट” कहा जाता है, वह भी अपने एंटीबैक्टीरियल गुणों के लिये जाना जाता है। बजाय इसके कि इस बेहतरीन उर्वरक का उपयोग मानव प्रजाति की खाद्य सुरक्षा में किया जाये, हमने करोड़ों डालर कृत्रिम उर्वरक बनाने के कारखानों में लगा दिये हैं, ऐसे उर्वरक जो प्रकृति ने पहले से ही मानव शरीर द्वारा निर्मित करके दिये हैं। ज़ाहिर है कि हमें इस समस्या को नये सिरे से देखने की आवश्यकता है, क्या अब हम पुराने “चेम्बर पॉट” सिस्टम पर लौट सकते हैं? क्या शहरी जनता की “सुविधा” को तकलीफ़ में न बदलते हुए भी इस दिशा में कुछ किया जा सकता है? आर्थिक योजनाकारों, नीतिनियंताओं और यहाँ तक कि बड़े-बड़े पर्यावरणविदों के लिये भी जनता को इस बारे में समझाना मुश्किल है, खासकर शहरी जनता को, कि अब वे लोग फ़्लश टायलेट का उपयोग बन्द करके पुराने तरीके पर लौटें। सो अब जबकि राष्ट्र एक नई शताब्दी में प्रवेश कर चुका है, सुरक्षित रूप से कचरा निपटान नहीं करने के कारण, सार्वजनिक स्वास्थ्य की समस्याओं पर पकड़ बनाने और स्वच्छता अभियान के विभिन्न लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये हमें आर्थिक रूप से सक्षम और पर्यावरण की दृष्टि से स्थाई व्यवस्था का निर्माण करना होगा। सच का सामना करना ही होगा कि दुनिया की लगभग ढाई अरब से भी अधिक उस आबादी के लिये, जिसे उचित सेनिटेशन और पानी मुहैया नहीं है, हमें भी एक पहल करनी होगा, हमें समझना होगा कि इस समस्या को हल्के से नहीं लेना चाहिये। विकल्प मौजूद हैं, बस उन पर काम करने की आवश्यकता है। “प्राकृतिक स्वच्छता” एक प्रकार का विशिष्ट प्रतिमान है जो अपशिष्ट को एक संसाधन में बदल सकता है। अधिक विस्तार में न जाते हुए सिर्फ़ यह जानें कि “ईको-सैन” पद्धति में पानी के उपयोग के बिना ही अपशिष्ट को उसके मूल स्रोत पर ही ठोस और तरल रूप में अलग-अलग कर दिया जाता है, और फ़िर उस अपशिष्ट को उपयोग करने लायक खाद में बदला जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में इस “ईको-सैन” कार्ययोजना को लागू करने और उसे लोकप्रिय करने में हमारी संस्था “अर्घ्यम” में हम इस दिशा में काम कर रहे हैं। इसी के साथ हम विभिन्न कृषि विश्वविद्यालयों को इस सिलसिले में शोध और ट्रेनिंग देने के लिए भी कह रहे हैं। हमारा ल्ष्यृ सामान्य तौर पर ऐसे छोटे किसान हैं जिनके पास पारम्परिक शौचालय नहीं हैं और उन्हें महंगे उर्वरक खरीदने में भी कठिनाई होती है। केले की खेती पर ALW के उत्तम उपयोग के प्रभाव को देखने के लिये आपको खुद ही देखना होगा तभी आप इस पर विश्वास करेंगे। एक किसान को आसानी से एक बार में ही इस “ईको-सैन” तकनीक के बारे में समझाया जा सकता है जो उसके उर्वरकों पर खर्च के हजारों रुपये तो बचायेगा ही साथ ही उसकी मिट्टी के उपजाऊपन को भी बरकरार रखेगा। यदि यह इतना ही आसान और प्रभावशाली हल है तो फ़िर क्यों नहीं यह तेजी से पूरे देश में लागू किया जा सकता, बल्कि समूचे विश्व में भी? लेकिन इस राह में कई चुनौतियाँ हैं, जैसे जागरूकता, अच्छी डिजाइन, सरकार की नीतियाँ, आर्थिक और अन्य प्रोत्साहनों के साथ-साथ भारत जैसे देश में संस्कृति और जात-पात से भी जूझना पड़ेगा। “ईको-सैन” छोटे ग्रामीण इलाकों में स्वच्छता प्रबन्धन का समाधान प्रस्तुत करने में सक्षम है। हालांकि इनमें से कोई भी पूर्ण नहीं है, लेकिन हमें नई “ग्रीन अर्थव्यवस्था” बनाने हेतु विजेताओं की आवश्यकता है। ऐसे विजेता जो लगातार और आशावादी तरीके से आज के मार्केट आधारित सिस्टम पर खरे उतर सकें, लोगों को समझा सकें कि पर्यावरण बदलाव क्या है और हमें लम्बे समय तक टिकाऊ स्वच्छता पाने के लिये क्या-क्या करना चाहिये। “इन्द्रधनुषी सपनों का पीछा करने वालों को निश्चित रूप से अन्त में सोना हाथ लगता है। “ 

Friday, June 11, 2010

idea-2 school project: wind turbine model


wind turbine model :
This wind turbine model makes its electricity with a simple generator which produces pulses of current, or
alternating current. It does so by passing strong magnets over coils of fine wire. Each time a magnet passes
over a coil, the coil becomes energized with electricity. With 4 coils connected together in series, the result is a
quadrupling of the voltage.
This is the simplest and possibly most efficient way to generate electricity, and is the same basic principle used
in almost all wind turbines, even the large scale commercial ones. The electricity from a wind turbine varies with the wind speed, so to make practical use of it, you must be able to store it in batteries, or change it into a form that gives a stable, constant voltage. Usually, electricity from wind turbines is converted from alternating current to direct current, which can be used for battery charging.
click the link below to down load pdf file

idea-1 Archimedes' Screw pump


Archimedes' Screw pump While in Alexandria, he invented a device now known as Archimedes' screw . It was first used to pump water out of ships and was later used in irrigation. This type of water pump is still used in many parts of the world today. Its very simple project model for viii and ix. A long, helical pipe if tilted 45 degrees and the lower end is inserted in water then Rotating the pipe moves water up to and out the top.

ग्लोबल वार्मिंग की रोकने की तरफ छोटे से ही सही पर अपने कदम जरूर बढायें

ग्लोबल वार्मिंग धरती गर्म हो रही हे गलेशियर पिघल रहे दुनिया भर मे मौसम दोस्ताना ना रहा सर्दी मे अधिक सर्दी गरमी मे अधिक गर्मी बरसात मे बाढ के नजारे है। धूल उडाती धरती …तेजी से खत्म होते जंगल। हजारों तरीके हे हमारे पास जिनसे अभी भी हम इस सब को कुछ हद तक काबू मे ला सकते हे। हम आसान और छोटे और आसान से दिखने वाले तरीकों से अपनी शरुआत कर सकते है।
  1. हम बेकार पडे कार्टून से सोलर कूकर बना सकते हे। जो सस्ता हे पर बड़ा ही करामती हे।
  2. बेकार पडे रद्दी न्यूज पैपर को हम छत पर बिछाकर छत को सूरज की सीधी तीखी गर्मी से बचा सकते हे। आप को तापमान में अतंर साफ दिखाइ देने लगेगा। यह एसी के बिल मे भी कटौती करेगा।
  3.  बायो डीग्रेडेबल साबुन और डीटर्जेंट बाजार मे आसानी से उपलब्ध । इसलिये इनका इस्तेमाल कर बाथरूम के पानी को नाली में बेकार जाने की जगह उसे किचन गार्डन और बगीचों और गमलों में डालें।
  4. बाथरूम मे एरीयेटेड शावर और नलों का इस्तेमाल से पानी की खपत में 15 से 20% की कटौती की जा सकती हे
  5. सी एफ एल के कम उर्जा वाले बल्बों का इस्तेमाल।
  6. घरों कि डिजाइन में मौसम और आसपास के भूगोल का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिये। जिससे  हवा का बहाव धूप कि दिशा घर के वातावरण को प्राकृतिक तरीके से अनकूल रख सके।
  7. एसे ही अनगिनीत उपाय हे जिन्हे माइन्ड मेप से समझा जा सकता हे कुछ मेप नीचे दे रहे है…हो सकता हे आपके दिमाग की बत्ती भी जल जाये। अगर कुछ भी दिमाग में आये तो इस ब्लोग पर शेयर कर सकते हे।